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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
मैं श्रा निकला | ललितांग कुमार की परोपकारमयी वृद्धि और निगाह ने सज्जन को चट से पहचान लिया। उसे पास उन ने बुलाया । कुमार को पूर्ण स्वस्थ और अपने राजसो चेप में देख-भाल कर, संज्जन का सिर भन्दा पड़ गया। सहसा, वह चोल पड़ा, 'मित्रवर! धन्य है आप की कर रही श्रोर मनसूबा ! मैं आज तक आप के सिद्धान्त की अवहेलना करता था । श्रव अपनी हिमालय जैसी भूल मुझे मालूम हो गई। प्रत्यक्ष प्रमाण मी, श्राप ही, इस का मेरे सम्मुख हैं । आपने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिखाया, कि मेले का फल मला ही होता है। मैं ने अपनी नीच करसी का फल पाया । आप से ज्योंही में विदा हुआ था, रास्ते ह्रीं में चलते-चलते मैं लुट गया। ऊपर से मार भी कुछ कम न पड़ी। घर गया। वहाँ भी सब खंड बंड पाया। मेरे पापों की पोल, राजा पर भी, एक दिन प्रकट हो गई । सही-सलामत, रातों-रात, वहाँ से भी भाग कर बच पाया यह कुछ कम नसीब की बात नहीं है । अव तो सूखी-लखी रोटियाँ भी समय पर नसीक नहीं होतीं ।
सज्जन की आँखें पानी में डुबकियाँ लगा रही थीं। कुमार का करूण-ह्रदय इस घटना को और अधिक देर तक न देख सका। वे परोपकारी थे। शत्रु और मित्र, सभी के लिए, उन की करुणा का स्रोत एकत्सा प्रवाहित था । कुमार ने सज्जन क मय दान देकर, एक मित्र के नाते, उसकी तत्काल ही काया पलट कर दी। कुछ भी हो, आखिरकार उस का हृदय तो, अभी तक वैसा ही दुर्जन था । साँप को चाहे जितना दूध कोई पिलावे, विष ही तो बदले में वह उगलता है। सज्जन की भी यही हालत थी ।
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