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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
कठोर प्रण ? वेटा ! ये बातें, तुम्हारे वंश को, तुम्हारी मानमर्यादा को, तुम्हारी जाति को और तुम्हारे बाप के उज्जवल नाम को वट्टा लगाने वाली हैं ! तुम्हारे धर्म और धन के भी प्रतिकूल यह बात है ! फिर, एक विवाह तो तेरा बहुत पहले हो भी चुका है ! तब यह कुमति तुझे सूझी ही तो क्यों ? हाथ का छूटा हुआ, एक बार फिर कभी मिल भी सकता है: पर मुँह का निकाला हुआ वोल तो, फिर कभी मिल भी नहीं सकतः । अतः बोल सँभाल कर और ताल कर वोलना चाहिए ।" परन्तु कुमार के दिल और दिमाग पर कुमति का कट्टर जादू, अपना अटल अधिकार जमाय वैठा था । वेचारे बाप की तब वह सुनने ही क्यों लगता !" श्रभी, मैं और कुछ भी सुनतासमझता नहीं । श्राप तो उस का विवाह भर अभी मेरे साथ कर दें । यस, इतना ही मैं चाहता हूँ ।" कुमार ने उत्तर दिया । इतने में, माता भी वहाँ श्रा पहुँची । श्रव पिता-माता दोनों मिल कर, कुमार को समझाने-बुझाने लगे । परन्तु कुमार अपनी ज़िद पर अटल थे । वे टस से मस भी न हुए। पिता-माता की सारी गिड़गिड़ उन के लिए श्ररण्य रोदन हो गई । श्रथ कुमार की धर्म-परायण पत्नी वहाँ श्रई । वह चोली - "भगवन्, श्राज आखिरकार यह मामला क्या है ? जय एक पति-परायणा पत्नी, अपने पति को, यदि श्राज छोड़ बैठती है, तो व्यभिचारिणी तथा कुलटा, आदि नामों से वह पुकारी जाने लगती है । जगत का यह आँखा देखा लेखा है। तब क्यों नहीं ऐसा ही कोई कलंक पुरुष वर्ग के सिर भी कभी मढ़ा जाता है ? क्या कानून बनाने का सारा अधिकार, उन्हीं के हाथों सदा से चला आया है, इसी कारण, एक पत्नी व्रत धर्म को जय चाहे तव, जहाँ चाहे
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