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इलायची- कुमार
कुमार के धर्म और मर्यादा के बाँध टूट गये। " एक नारी, सदा ब्रह्मचारी, " का व्रत खंडित हो गया । श्रव तो - 'कामातुराणां न भयं न लज्जा । ' --के अनुसार, कुमार कामातुर हो उठे । चे घर को श्राये । अव उन का प्रत्येक पल इसी चिन्ता में बीतने लगा, वह परम सुन्दर नट- पुत्री प्राप्त हो, तो कैसे हो ! इस चिन्ता ही चिन्ता में, कुमार का सारा खाना-पीना खराव हो गयाः और नींद हराम | चेहरे का सारा नूर उतर गया । यह देख, पिता ने एक दिन उन्हें पूछा, "बेटा, तुम्हें कमी कौनसी है, जो श्राज-कल दिनों-दिन तुम सूख कर काँटा बने जा रहे हो ! कोई रोग हो, तो धन्वन्तरि के समान धुरन्धर वैद्यों को मैं बुलाऊँ ! कोई चाह हो, तो इसी क्षण में उसे पूरी करूँ ! कोई कसक हो, तो उस काँटे को बाहर निकाल में फेंकूँ। किसी ने तुम्हारे मान को भंग यदि कियी हो, तो उस के मान को मैला, मैं मिनिटों में मैला श्राज कर दिखाऊँ ! बेटा ! निःशंक हो कर, अपने दिल को खोल कर, तुम मेरे सामने रक्खो । यदि श्राप मुझे जीवित रखना चाहते हैं; श्रापके हृदय में कुछ प्रेम यदि मरे प्रति है, तो
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एक हुक मोर मन-माँही मोहिं नटवी को देउ परणाँहीं ॥ इहि ते बढ़ कर काज न कोई । अत्र मम जीवन तब ही होई ॥ तब लगि खान-पान नहिं करिह हुँ । जब लग चाके सँग नहिं चरिह हुँ ।
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कुमार की इस बात को सुन कर, पिता एकदम चौंक पड़ा। वह बोला, " घंटा ! आज तुम यह कह क्या रहे हो ? क्या, किसी नशीले पदार्थ का सेवन तो श्राज तुम ने नहीं किया है ? क्या, नटवी और तुम जैसे कुलीनों का परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध ? औौर, उस पर भी, अन्न-पानी के त्याग का यह [ १७१ ]