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इलायधी-कुमार
तहाँ, और जैसे चाहे वैसे, छोड़ कर भी, वे सदाचार और शील का सुन्दर सेहरा, अपने सिर पर, सदा बाँधे रह सकत हैं ? कदापि नहीं ! व्यभिचारी, कुलांगार, लम्पट श्रादि कहलाने का कलंक उन के सिर पर लगेगा: और अवश्य लगेगा। यह तो यह, एक नटवी को अपनी श्रद्धांगिनी बना कर, जिस घर और वंश की शीतल छाया में श्राप पले-पुषे हैं, उन तक को कलंकित श्राप करना चाहते है ! यह विवाह नहीं ! वरन् मुझ अनाथिनी के सर्वस्व को,दिन-दहाड़े लूटने का,यह मनसूबा श्राप बाँध रहे हैं ! क्या, उस दिन की प्रतिमा को, पुरुष हो कर भी, श्राप य भूल गये, जब कि श्राप ने अपना हाथ मुझे सौंपा था ? मेरे साथ, भाँवर में सात पैर चल कर, क्या,यापने नहीं कहा था, कि "श्राज से मैं तुम्हारा और तुम मेरी हो"? स्वामिन ! हम अब अबलात्रों का यँ तिरस्कार न कीजिए हम श्रयलाएँ, हो कर के भी सबसे अधिक सबलाएँ हैं। हमारे द्वारा अपने हकों की हिमायत-भर करने की देर होती है। बस, तब तो हमी अवलाग, काली, रण-चण्डी, रूद्राणी, शक्ति, दुर्गा, महा-माया का रूप धारण कर लेती है। जगत् का प्रोज, तब हमारा अपना होता है । इतिहास इस बात की पुष्टि करती हैं, कि हम में से एक-एक के लिए तक, इस धरा धाम पर, समय-समय, रक्त की नदियाँ वही हैं। संसार-भर के जितने भी वीर हुए हैं,और आगे भी होंगे,सबकी माताएँ. हम ही है । त्याग का अन्यतम उदाहरण, हम से बढ़कर, श्राज तक कोई भी जगत् में रख न सका। पुरुप-वंश की शान उसके मान और नाम श्रादि को रखने भर के लिए,हम ने अपने पिता के वंश तक को,सदा के लिए,अपने पति के वंश में
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