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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
"छुट्टी देना तो बहुत परे की बात है। उस की ज़वान पर ये वोल तक मैं न देख सकूँगा। उसी क्षण, मैं उस का काम तमाम कर दूंगा।"
" राजन् ! जब एक ही अपराध के करने पर, अपने अपराधी को एक मिनिट भर के लिए छोड़ना तुम्हें मंजूर नहीं है, तव तुम्हारे दादा ने तो कई पाप किये हैं। नर्क में से उन्हें तो फिर यहाँ श्राने ही कौन देगा? . “अच्छा महाराज, दादा की बात छोड़िये । मेरी दादी तो श्राप ही के समान धर्म का पद-पद पर पालन करती थी। आप की भावना के अनुसार, अवश्य ही वह तो अमर-लोक में गई होगी। उसे तो वहाँ से छुट्टी भी मिल सकती होगी। तव वही क्यों न मुझे पाप करने से हटक देती ?"
" राजन् ! कोई मनुष्य नहा-धोकर सन्ध्या-चन्दन श्रादि शुभ कृत्य के लिए, यदि जा रहा हो, उस काल, एक मेहतर पाखाने में बात-चीत करने के लिए उसे बुलावे, तो क्या, वह वहाँ जाना पसन्द करेगा?" ___ "कदापि नहीं, महाराज !" ___" यही हाल, वस, तुम अपनी दादी का भी समझो, राजन् ! फिर, यहाँ के कई युग और वहाँ के कुछेक क्षण, वरावर होते हैं । वह आवे-श्रावे, इतने में तो, यहाँ वालों की कई पीढ़ियाँ वीत जावेगी । तव स्वर्गस्थ-पात्मा आकर यदि कहे भी, तो किसे ओर कैसे ?"
" इस विवाद को भी, अच्छा महाराज ! यहीं छोड़िये । . एक अपराधी को मैं ने मार कर, लोह-निर्मित एक मज़बूत
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