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ललितांग कुमार
का पता लगाना चाहिए । केवल सज्जन के मुँह से सुनी हुई वात ही पर, कुमार और कुमारी के भाग्य का निर्णय करना, न्याय संगत नहीं है,"मन्त्रों ने प्रार्थना करते हुए कहा। __राजा अपनी अनसोची करणी पर पछताया । दीवानजी को मामले की छानबीन का काम सौंपा गया । दीवानजी, कुमार के वंश का पता लगाने के लिए, उनके पास गये। शिखर में वे पहुँचे । कुमार के सम्मुख, उन की प्राज्ञा ले, उन्हें पेश किया गया। प्राथमिक शिष्टाचार के वाद, मन्त्री ने अपना वक्तव्य पेश किया । कुमार ने कड़क कर इसका उत्तर दिया, कि "मैं जिस जाति का हूँ, इसका उत्तर तो, श्राप को, रणांगण में, मेरी खरतर तलवार के द्वारा दिया जावेगा । दीवानजी ! अपने मुँह मियाँ मिट्ठ तो बनना, मैं जानता नहीं। प्रसंगवश, मुझे तो इतना ही कहना है, कि 'शूर समर करणी करहिं कहि न जना श्राप। विद्यमान रण पाइ रिपु, कायर करहिं प्रलाप॥' मन्त्री इस उत्तर को पाकर हताश न हुआ । वह अनुभवी था। राजनीति की पेचीदागियों को यह सुलझाना भी खूब जानता था। अकारण, कुमार भी नहीं चाहते थे, कि हज़ारों लाखों का खून-खचर मचाया जाय । मन्त्री के प्राग्रह-पूर्वक श्रावेदन ने, कुमार को, उनके वंश का नाम-धाम बता देने पर, अन्त में कायल कर ही जो दिया । यह सुनकर, कि वे श्रीनिवास चाती के दात्रिम महाराज नरवाहन के ज्येष्ठ पुत्र हैं। दीवान का हृदय प्रफलित हो गया। मंत्री, चट से राजा के पास पहुँचे । सारा हाल उनसे कहा। अव तोराजा के श्रानन्द की सीमा ही न रही। कुमार से क्षमा याचना उसने की । महाराज नरवाहन को भी, कुमार के अपने यहाँ होने का सन्देश, उसने दे दिया। नरवाहन
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