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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
जो भी 'सज्जन' के झांसे में आ गया था,तव भी अच्छता-पछता वह पूरा रहा था। सन्देश को पाते ही, कली-कली उस की खिल गई । वह दल-बल के साथ, पुत्र का समयोचित स्वागत करने के लिए, तत्काल ही वहाँ पहुँचा । वर्षों के विछुड़े हुए दो हृदय, एक हुए । पिताने पुत्र के परोपकार की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। पिता तो, पुत्र के परोपकार को, निज की करणी में जाने के लिए भी कटिवद्ध हो गये । जित-शत्रु ने भी महाराज नरवाहन का साथ किया । अव कुमार ही, दोनों राज्यों के, सर्वेसर्वा अधिपति बना दिये गये। श्वसुर और पिता दोनों आत्म-कल्याण के लिए निकल पड़े । कुछेक वर्षों तक, कुमार ने बड़ी हीन्याय नीति-पूर्वक राज्य को सँभाला । एक दिन, अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप, साधु वे हो गये । और, अपने प्रात्म कल्याण के मार्ग को और भी प्रशस्त कर लिया। यदि कोई प्रयत्न करे तो एक-मात्र परोपकार ही के वल, इस नस्वर जगत में भी अमर बन सकता है।
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