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रूठ-धन्ना जा
तैयारी भी कैसी ? यह तो कादरता का चिह्न है । यहाँ की एक-एक बात को त्यागने की अपेक्षा, सभी से एक ही दम किनारा काट जाना, वीरता तो इसी में है । मेरी समझ में तो, यह धीरे-धीरे का त्याग, कोई त्याग ही नहीं है ! यह तो त्याग की मखौलबाजी है ! संयम के साथ दाँव-पेंच की घाते हैं । और, संसार के भोगों की भावनाओं को और भी मज़बूत बनाने का मार्ग है। शुभ मार्ग में देरी और तैयारी कैसी ? "
सेठजी की इस तानाकशी ने सुभद्रा के दिल को और भी दहला दिया । मायके की याद कर, उस के हृदय में करुणा उमटू श्रई; और, पतिदेव की बातें सुन कर रोप ने उस के खून को खौला दिया । यह तमक कर बोली, "बात जब सचमुच में ऐसी ही हैं, तो फिर शूर-वीरता का परिचय पहले श्राप ही क्यों नहीं देते ! हाँ, 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे" तो जगत् में पद-पद पर नज़र श्राते हैं; पर अपनी कथनी को करणी का रूप देने में, भाई शालिभद्र के समान, कोई विरले ही वीर, इस धरणी-तल में समर्थ पाये जाते हैं ! कहने और करने में, पूर्व-पश्चिम का अन्तर है । एक अगर मनसूबा है, तो दूसरा, व्यापार है ।
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सेठजी को सुभद्रा की बातें लग गई। वे एक-दम उठ खड़े हुए। त्याग की तरंगें, उन के हृदय में इतनी ऊँची उठीं, कि संसार का चढ़े से बड़ा वैभव, अव उन के श्रागे, पल-भर को भी ठहर न सका। वे बोल पडे, " लो, मैंने श्राज ही से तुम सभी को छोड़ दिया ! संयम को व अपना साथी मैं ने बनाया ! श्राज से तुम और तुम्हारी अन्य सौतें, सभी मेरे लिए बहिनें हुई ! तुम ने मेरे साथ, बढ़ा उपकार किया, जो मोह-माया के इस
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