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जैन जगत के उज्ज्वल तारे
___ एक दिन सेठ धनाजी अपनी अशोक वाटिका में स्नान कर रहे थे। सुभद्रा उस समय अपने पति-देव की पीठ का मैल उतार रही थी। उसी समय, उसे याद आई, कि "मरा एक-मात्र भाई दीक्षित होनेवाला है।" मन में इस भाव के आत ही, उस की छाती भर आई । आँखों से गरम पानी का यूँदें टपा-टप गिरने लगीं। कुछ बूंदें सेठ की पीठ पर गरौं । उन्हों न सिर उठा कर पत्नी की ओर देखा। वे तव बोले, "सुभद्रा ! क्या कारण है, कि तुम अाज यूँ फूट-फूट कर रो रही हो ? क्या, तुम्हें काई मानसिक कष्ट है ? तुम्हारा घर और मायका, दोनों जगह सव प्रकार से सम्पन्न और भरी-पूरी हैं! फिर तुम्हें चिन्ता ही किस व.त की हुई, कि यूँ तुम एकाएक अधीर हो उठी हो! कौनसीवात तुम्हें यहाँ अखरीहै? तुम्हारा अपमान किया किसने है ? अपने मन की कहो। में अपने वनते-बल तुम्हारी चिन्ता को दूर करने का प्रयत्न करूँगा।" ___ सुभद्रा ने अवरुद्ध कंठ से कहा, "कुछ नहीं। ज़रा मायके की याद आ गई थी। मेरा इकलौता भाई दीक्षित होने को उद्यत हो रहा है । भौजाई अभी विलकुल भाली है। संसार की रूप-रेखा और पेचीदा गलियों से वह अभी विलकुल अनभिज्ञ है। माता-वृद्ध हैं । वस, इन्हीं सव बातों की स्मृति ने अचानक मेरे दिल को दहला दिया। यही कारण है, कि हृदय मेरा उवल पड़ा : आर, उस की आहे, आँखा के रास्ते बाहर छलक पड़ी।"
सेठ ने इस पर कहा, "वस, इतनी सी बात, और, इतना पश्चात्ताप ! जब संसार को त्यागना ही है, तो फिर देर क्यों?
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