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जैन जगत् के उज्वल तारे
कीचड़ से मुझे बाहर निकाल पटका।" सुभद्रा का कलेजा अव तो और भी थर्रा उठा। वह अपने किये पर बार-बार पछताने लगी। अनेकों अनुनय-विनय भी उस ने अपने स्वामी के सम्मुख की। पर सेठ जी के मन पर, त्याग का गाढा रंग चढ़ चुका था। वह, लाख प्रयत्न करने पर भी छूट न सका । उधर, सौतों ने जब यह वात सुनी, हकवकाते हुए दौड़ पड़ी। सुभद्रा की गाढ़ी लानत-मरामत उन्हों ने श्रा कर की। श्रव, सभी ने पति-देव को घेर लिया। फिर भी तरह-तरह की मिन्नतें मानी गई । पर धन्नाजी के आगे, सब बातें चेकार थीं। वे टस से मस न हुए। उन्हों ने केवल इतना ही कहा," यदि सच्चा स्नेह ही तुम्हें मुझ से है, तो तुम भी छोड़ो इस मोहमाया को और, चलो दीक्षित होने के लिए मेरे साथ ! यदि. संसार को तुम न त्यागोगी, तो संसार तो तुम्हें एक न एक दिन छोड़े ही गा।" वे भी आखिर कार, पुण्यात्मा सेठजी की ही तो पत्नियाँ थीं। उन्हों ने भी तब तो हँसते-हँसते अपने पति-देव का साथ दे दिया। __संसार सेनेह नाता तोड़,ये सबलोग शालिभद्र के पास आये। सेठजी साले से वोले, दीक्षा के लिए चलोन !भले काम में विचार और विलम्ब क्यों और कैसी?"वे भीमानोइन कीराह ही . देख रहे थे। चट उठ कर, इन के साथ हो लिये । सव के सव मिल कर,वीर प्रभु महावीर की शरण में आये । और, दीक्षित हो गये । तब बहुत समय तक, अन्तःकरण के शुद्ध भावों से पूर्ण चारित्र का पालन वे करते रहे । यूं, अन्त में, अपनी श्रात्मा का कल्याण कर, मोक्ष के राज-मार्ग के पथिकवे वने। यह सब, समय पर कही हुई, अवला कही जाने वाली
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