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________________ ललितांग-कुमार - चढ़ा था। परोपकार करना, अपने क्षत्रियत्व की शान वे समझते थे। कुमार के एक मित्र का नाम 'सज्जन ' था। परन्तु करणी से था वह दुर्जन । कुमार के सद्गुणों का वह स्वभाव ही से शत्र था। अपने सद्गुणों को छोड़ देने के लिए, समझाता भी वह उन्हें खूब ही था। परन्तु कुमार का मन पका घड़ा था। सज्जन के वोल की लाख, उस पर किसी भी तरह लग न पाती। वह सदैव उन्हें समझता,कि "कुमार की दानवीरता, आये दिनों, कभी उन्हें ले बैठेगी। और भले का नतीजा सदा बुरा ही होता है।" यों, दोनों का व्यवसाय जोरों पर था। कुमार अपनी करणी का कायल था; तो सज्जन को अपनी सड़ी हुई समझ का मर्ज़ सख्ती से सता रहा था। अच्छे का फल अच्छा ही होता है; और बुरे का नतीज़ा श्रास्त्रिर बुरा । कुमार का इस बात पर अटल विश्वास था। एक दिन कुछ दीन-दुखी लोग कुमार के निकट श्राये। उन्हें अपना रोना-गाना उन्होंने सुनाया। कुमार, करुणा की मूर्ति तो पहले ही से थे। उन का कलेजा थर्रा उठा । बहु-मूल्य हीरे की अंगूठी, अपने हाथ में से निकाल कर, उन्होंने, उन्हें दे दी । कुमार को नीचा दिखाने और उन्हें अपने पथ से भ्रष्ट करने का, सज्जन ने यह सुसंयोग पाया । वह दौड़ कर राजा के पास गया। और कुमार की राई-भर करणी को,पर्वत के समान राजा के सामने रक्खी । राजा. ने, इस पर से, कुमार को चुला कर डाटा-डपटा और भाविष्य के लिए उन्हें आगाह भी कर दिया। कुमार,माता-पिता के भक्त थे । भविष्य में, पिता की आज्ञा को यथा-सम्भव पालन करने का उन्होंने कहा। अब तक कुमार की दान-वीरता, राजा की दानवीरता से [१०७ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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