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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
भी अधिक वढ़ चुकी थी। समय पाते ही चारों ओर के दीनदुखी लोगों का ताँता-सा कुमार के पास उमड़ पड़ता । यथासमय कुमार भी उन की उचित सहयता कर ही देते । परन्तु, उस दिन से, पितृ-भक्ति वीच में श्राकर, यदा-कदा बीच विचाव करने लग पड़ती । कुमार का कलेजा, इस से, काँप-सा उठता। सज्जन को साथ लिय, कुमार एक दिन सैर-सपाटे को जा रहे थे। मार्ग में, मुसांवत के मारे कुछ मनुष्यों ने, कुमार को श्राकर घेर लिया । पिता की श्राशा का पालन करते हुए, कुमार ने यथा-सम्भव, उन की सहायता की। परन्तु उनकी इच्छा पूर्ति श्राज न हुई। यह देख, कुमार से वे बोले, “कुमार की दान-शीलता लोक-प्रसिद्ध है । परोपकार, श्राप का पूरे रूप से प्रसिद्धि पा चुका है । क्षत्रिय होने के नाते भी, हम दीनअनाथों का दुःख दूर करना, आपका प्रधान कर्तव्य हो जाता है । लाखों की लक्ष्मी, अभी तक श्राप लुटा चुके हैं । श्राज हमारे ही लिए कुमार को कोर-कसर क्यों ? लाख-लाख बार कलाश्री का काट-छाँट हो, चन्द्रमा अपनी शीतलता को छोड़ कर, उष्ण तो कभी होता ही नहीं । करणा का शूर-वीर, रणांगण को पीठ दिखाना तो कभी सीखा ही नहीं । " दुखियाओं के इस श्रार्त्तनाद ने कुमार के दिल को दहला दिया। कृत्रिम उपायों से, नैसर्गिक दानवीरता की आँधी रुक भी तो कब तक सकती थी। आवेश में श्राकर, कुमार ने अपने गले का हार उतार, उन्हें दे दिया । सज्जन की इर्पा और भी उवल उठी । राजा के पास, अर्ज़ाऊ वन कर, उलटे पैरों वह दौड़ पड़ा । राजाने, कुमार के हृदय को विना टटोले ही, उन्हें देश-निकाला दे दिया । किंचित् भी क्लेश और कल्मप, कुमार के मन में इस से न
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