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ललितांग- कुमार
हुआ । पितृ-भक्ति के ज्वलन्त उदाहरण, कुमार, पिता की श्राशा को सिर पर धारण करते ही बने |
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सज्जन भी साथ में था । चले चले दोनों बीयावान वन में पहुँचे । सज्जन बोला, कुमार ! अभी कुछ विगढ़ा नहीं हैं | पनी श्रादत से अभी भी बाज़ था जाश्रो । राज्य तुम्हारा, श्रीर तुम्हारे बाप का है। राजा श्राज भी तुम्हें क्षमाप्रदान कर सकत है । कुमार बोले, सज्जन ! जिस को जो बात मीठी लगती है, लाख कडवी होने पर भी, वह उसे मीठी ही लगती है । श्राम, वसन्त ऋतु को देख कर ही बौराते हैं। पीड-पीड की रटन करता हुथा, प्यासा पपीहा, मरते-मर जाना है: परन्तु स्वाँति की श्रमृत बूंदों को छोड़, अन्य पानी को वह कभी छूता तक नहीं । संसार के सम्पूर्ण जलाशय उस के लिए केवल मरुभूमि ही हैं । तब तो मनुष्य वन कर भी अपने मार्ग से मुझे भटक जाना ही क्यों चाहिए !"
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भले का भला और बुरे का बुरा नतीज़ा होता है, यदि यही बात है, तो चलें, इस का निर्णय किसी से करवालें । और, इस पर, यदि तुम्हारी हार हो गई, तो अपना अश्व, श्रभूपण और वस्त्र, सब के सब मेरे हवाले, तुम्हें कर देना पड़ेir l " सज्जन ने बदल में कहा। कुमार ने खुशी-खुशी, "हाँ"
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कहा ।
चल चले व दोनों एक गाँव में पहुँचे। एक जगह पाँचइस श्रादमियों का मजमा जमा था । सज्जन ने उन से पूछा, कहो भाई, क्या, भले का बदला भला होता है, या बुरा ? 66 बुरा, बुरा, " चारों ओर से श्रावाज़ आई ।
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