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सेट- सुदर्शन
कुम्हारों से, सेठजी की हचह प्रतिकृति का, मिट्टी का एक पुतला बनवाया । पर्दे की ओट में, रानी के इष्टदेव की मूर्ति के रूप में, नित्यम्प्रति, राज-महलों में, वह लाया जाने लगा । पहरेदारों को यह बात भली प्रकार से दासियों ने समझा भी दी । तब भी यदा-कदा रोक-टोंक वे करते ही । इस पर, दासियाँ, अपनी स्वामिनी के पूर्व श्रादेशानुसार, उस मिट्टी के पुतले को वहीं फोड़-फाड़ कर चलती बनतीं। दो चार वार यूँ किया जाने पर, पहरे दारों का सन्देह जड़ से चला गया। श्रागे चल कर, पहरे द्वारों की ओर से ऐसी कोई भी हरकर्ते न हुई, जिस के कारण, सेठजी के पुतले को फोड़ने का नौका श्राता । श्रस्तु |
ध्यानस्थ
एक बार, चतुर्दशी का दिन था। नगर के सभी नर-नारी, नगर के बाहर, किसी महात्सव को मना रहे थे । परन्तु सट जी पौधशाला में पापवत को धारण कर के, बैठे थे । रानी ने इस अवसर का सदुपयोग कर लेना चाहा । अपनी दासियों को याज्ञा उस ने दी। पुतले के चदले, आज स्वयं सेंटजी ही को उठा उस ने मँगवाया । रानी ने, तब ता, अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए, जितने भी उचित तथा श्रनुचित उपाय करना चाहिए थे, किय । साथ ही यह शर्त भी अन्त में उस ने रखदी थी, कि यदि सेठजी इस दिशा में असफल रहे, तो उन के जीवन का तत्काल ही अन्त कर दिया जायगा । सांसारिक सुख, सम्पत्ति एवं सम्पूर्ण सक्रिय साधन, सेठजी के इशारों पर नाचने के लिए श्राज उपस्थित थे । पर सेठजी के श्रागे, वही अपना एक पत्नी - व्रत प्रण था । "मातृचत् पर दारेपुः लोट-वत् पर-धनेपु च, " का नैतिक सिद्धान्त,
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