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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
पर पानी की वूदों की तरह,सटजी की उपदेश-भरी यात,पुरोहितानी के हृदय को ज़रा भी न लगीं। सेठजी को, अपने प्रवल प्रयत्नों से,जब वह रिझान सकी,उन्हें पुरुषत्व-हीन समझ,अपने मकान से बाहर उस ने निकलवा दिया । सेठजी ने अपने भाग्य को सराहा। श्रार, मन ही मन, अपनी वाक्चातुरी की प्रशंसा भी उन्हों ने खूब ही की। - एक दिन सेठानी अपने चारों पुत्रों को ले, किसीमहोत्सव में जा रही थी। रानी अभया उस समय राज-महल के झरोख्ने में बैठी हुई थी। पुरोहितानी भी उसी के निकट उस समय थी। पड़ोस में बैठी हुई पुरोहितानी से, उस का परिचय रानी ने पूछा । पास की एक दासी वीच ही में बोल उठी, "सुदशन सेठजी की यह स्त्रो है। चारों वालक, जो साथ में हैं, वे भी इसी के हैं । " पुरोहितानी ने इसे सुन कर, वुरा-सा मुँह वनाया। रानी ने तव तो इस का भेद उस से पूछा । पुरोहितानो पहले तो मौन-सी रही। पर बार-बार पूछने पर, मुँहचनाते हुए, अपने हृदय को खोल कर, उसने रानी के धागे रख दिया। सेठ जी के पुरुषार्थ-हीनता की पोल उस ने पूरीपूरी खोल दी। रानी ने वीच ही में उस की बात को काट, सेठजी के पुरुपत्व की दुहाई उस को दी। इतना ही नहीं, ऊपर से, उसी के चातुर्य की हीनता भी उस ने बताई, जिस के कारण, सेठजी को वह अपना न कर सकी थी! तदुपरान्त, उस ने उन्हीं सेठजी को अपने हिये का हार बना लेने की प्रतिज्ञा भी की।
कुछ दिनों के बीत जाने पर, दासियों के द्वारा, रानी ने,
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