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सेठ - सुदर्शन
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हैं; प्राण और शरीर का श्रन्योन्य सम्बन्ध जैसे है; सेठजी और पुरोहित जी की मित्रता भी ठीक वैसी ही थी । किसी कारण वश पुरोहित जी एक दिन कहीं गये हुए थे । पुरोहितानी के मन में बुरे भाव समाये । पुरोहितजी की इस अनुपस्थिति में, पुरोहितानी ने सेठजी के इस प्रेम का अनुचित उपयोग लेना चाहा । श्रपनी पाप-भरी मनोवृत्तियों की पूर्ति उस ने उस समय करना चाही । यह कह कर, कि "पुरोहित जी को बुखार ने श्राज जोरों से पकड़ रक्खा है, " दासियों के हाथ सेठजी को उस ने बुला भेजा। उधर, वह स्वयं बुखार का बहाना कर के, पुरोहितजी के बिछाने पर जा सो रही । सेटजी को बुला कर, यहाँ से रफू चक्कर हो जाने का आदेश, दासियों को उस ने पहले ही दे रक्खा था। सेठ जी वहाँ श्राये । दासियों ने अपना रास्ता पकड़ा। बेचारे सेठजी एक ही गाँव के रहने वाले थे। उस पापाभिसन्धि का रत्ती भर भी पता उन्हें न लगा । बिछौने के पास श्री कर, प्रोढ़ने को अलग उस ने किया । और, पुरोहितानी को सोई हुई देख, वे अलग जा खड़े हुए | वे चकित हो कर पूछने लगे, " श्रजी ! कहाँ है पुरोहित जी ? कैसी हैं उन की तबियत श्रच ? " पुरोहितानी ने सेटंजी का हाथ पकड़ा । और, अपने मन की बात उस ने उन से कही। सेठजी, धर्म भीरु थे । 'पर-दारेषु मातृवत्' का पाठ, उन्हें उनकी जन्म-घुटी के साथ, पालने ही में पढ़ाया गया था । एक पंतित के उपासक ये थे । पुरोहितानी की पाप-भरी बातों ने सेटजी के हृदय की गति को स्तम्भित कर दिया । कानों पर उन्हों ने हाथ दे दिये। वे उसे भाँति-भाँति का बोध देने लगे । परन्तु - "कामातुराणां भयं न लज्जा । " चिकने घड़े
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