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जैन जगत के उज्वल तारे
उन के दिल और दिमाग का क्रोत-दास था.। उन्होंने हँसते. हँसते मौत को आलिंगन करना ही गचत समझा: परन्तु अपने प्रण से पराङ्मुख हाना , अनुचित और अधेयस्कर. माना । रानी. जब किसी भी प्रकार से सटजी को अपने पन में न कर सकी. चिल्ला उठी । पहरे दारों को पुकार कर उस ने कहा, "दाड़ो ! दोड़ा !! अपनी पाप-मयो भावनाओं की पूर्ति के लिए, यह पापी, दुराचारी सुदर्शन, मेरे महलों में घुस
आया है ! क्षण-मात्र ही की देर. मेरे सतीत्व को सन्दह में पटक देगी !!" यह सुनते ही पहरेदारी ने उन्हें धर-पकड़ा। महाराजा के सामन उन्हें पेश किया गया। राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसी क्षण. शूली पर उन्हें चढ़ाने की राजाज्ञा हुई। नगर में हाहाकार मच गया। सेठजी के शील-व्रत की दशों दिशाओं में धान थी । श्राकाश को गुंजा देने वाला जनता की ओर स एक आवाज़ उठी। परन्तु राजा के दिल पर झूठ ने अपना दृढ़ शासन जमा दिया था। सभी प्रार्थनाएं बेकार हुई। नियत स्थान पर उन्हें लाया गया। प्राण-नाश को हानि,सेठजी के हृदय को कंपाने के बदले हँसारही थी। अपनी सत्यता और शाल-व्रत की बाल-बाल रक्षा के कारण, एक दिव्य प्रामा, उन के चेहरे पर चमक उठी थी । नव-कार महा-मन्त्र . का स्मरण उन्हों ने मन ही मन किया। बस, एक क्षण-भरही की देर और थी । इतने ही में एक दैवी घटना घटी । शीलरक्षक देव ने शूली के स्थान पर, सिंहासन उन के लिए वना दिया। दशों दिशाओं से उमड़ी हुई जनता की अपार भीड़ और राज-परिवार ने, इस चमत्कार को अपनी आँखों से देखा। राजा के न्याय और नीति का आसन हिल उठा। अव तोपहरे
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