________________
जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
अतः स्वभावतः अपने सांसारिक राज्य की अपेक्षा, वैराग्य के साथ, आत्म-राज्य में विचरण करना ही इन्हें अच्छा लगा। समय आया । विचारों में दृढ़ता हुई । अन्त में एक दिन, अपने इरादे के अनुसार, राज्य का सारा भार, अपने नव-बयस्क कुमार के कन्धों रख,भगवान् की शरण में जा,श्राप दीक्षित हो ही गये। सच है,"where there is a rill,there is a way" कंवल भाव-शुद्धि और दृढ़ता की आवश्यकता है । फिर, संखार की कोई भी शक्ति मार्ग में श्रा कर, मबल नहीं सकती।
स्थान-स्थान में धर्म का शुभ सन्देश देते हुए, एक दिन भगवान् राजगृह में पधारे । लोग, दर्शनों के लिए लालायित प.ले ही से हो रहे थे । भगवान्.. अागमन ने उन की उस लालसा को और भी भड़का दिया । वे उनके दर्शनों के लिए, बरसाती नदी-नालों की बाढ़ की भाँति उमड़ पड़े । वीर प्रभु के दर्शन और पवित्रं प्रवचनों से, अपने दैहिक और भौतिक नापों का शमन कर के जनता घर लौटो । उसी दिन, प्रसन्नचन्द्र मुनि ने भी भगवान् की आज्ञा को सिर आँखों रख, वन की ओर प्रस्थान कर, ध्यान धारण किया। ___ एक दिन कुछ वटोहियों ने मुनि को ध्यानस्थ देखा । वे परस्पर कहने लगे, "मुनि ने अपना श्रात्म-कल्याण भले ही सोचा हो; पर पुत्र के पैरों, तो कुल्हाड़ी इन्होंने मार दी। पुत्र
भी सयाना भी नहीं हो पाया था, कि हिमालय पर्वत-जैसे भारी राज्य का भार, इन्हों ने उस के सिर दे मारा । इस से शत्रु प्रों की सोलह श्राना बन पटी है। ना-वालिरा कुमार पर किसी-किसी ने तो हमला तक वोल दिया है।" वन की चीहता ने बटोहियों के उन चोलों को और भी चीहड़ बना दिया।
[१५८ ]