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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
अभय कुमार ने उस की इस हार्दिक भावना की पूर्ति कर दी। समय पूरा होने पर, रानी ने 'मेघ-कुमार नामक एक सुन्दर पुत्र को प्रसव किया । वह प्रादित्य के समान तेजस्वी और वृहस्पति के समान बुद्धिमान था। अपने यौवन-काल के श्रागमन के पूर्व ही. वह बहत्तर कलाओं की शिक्षा में पारंगत हो गया। फिर यौवन का श्रागमन हुआ । धूम-धाम के साथ विवाह हुआ । कुछ काल योहो अानन्द-पूर्वक बीत गया। कुमार के जीवन का यह स्वच्छन्द समय था।
इसी बीच, एक दिन विचरण करते करते वीर प्रभु उधर श्रा पधारे । दशौ दिशाओं से श्रा-भाकर जनता ने भगवान् की पीयूप-भरी वाणी का उचित लाभ उठाया। एक दिन मेघकुमार भी वहाँ जा पहुंचे । उर्वरा भूमि में वर्षा की बूंदों की पड़ने ही की देर होती है । ज्यों ही उन यूँदों का मिलन उस भूमि से हुआ, कि चट, पौधे पनप उठते हैं । मेघ कुमार के हृदय की भूमि भी उसी प्रकार उर्वरा थी । बस, भगवान् की पीयूप-वी वचनावलि की बूंदों के लगते ही, चैराग्य और सद्विवेक का पौधा उस में पनप उठा। जिस के फल-स्वरूा, वे अपने माता-पिता के पास गये । श्राज्ञा प्राप्त की ।और, लौट कर, प्रभु की शरण में श्रा, दीक्षित वे हो गये।
आज पहली ही रात्रि थी। सोने के समय अन्यान्य सभी साधु-सन्तों ने अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर, अपने-अपने आसन विछा लिये । मेघ मुनि की चारी सब से पीछे आई। अपने श्रासन का स्थान इन्हें दर्वाजे के तट पर-मिला । रात्रि के समय. साधुओं का बाहर-भीतर आना-जाना भी नियमपूर्वक होता ही रहा । स्वभाव से ही, मेध-मुनि.के हाथ-पैर
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