________________
जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
श्राकर, इन की चिन्ता का कारण पूछने लगे । सन्तान का अभाव इस का कारण जान पड़ा। मुनियों ने पहले तो उन्हें
च समझाया-बुझाया। अन्त में चलते समय, उन्होंने पुरोहित को, एक के बदले दो पुत्रों के होने का, श्राश्नासन दिया। बड़ों के द्वारा पाई हुई वस्तु का मूल्य भी उतना ही ऊँचा चुकाना पड़ता है। मुनियों ने आश्वासन तो उन्हें दिया; पर साथ ही यह भी कह दिया, कि वे दोनों पुत्र दीक्षा ग्रहण करना चाहेंगे। उस समय, तुम ज़रा भी उन के मार्ग में रोड़ा न अटकाना । पुरोहित, देवों की इस वाणी से बड़े ही प्रसन्न हुए। वे कहने लगे, " महात्मन् ! दीक्षा-जैसे पवित्र कार्य में, ऐसा कौन अभागा है, जो बाधा डालेगा ! मैं तो केवल इतना ही चाहता हूँ कि पुरोहितानी के बाँझपन का कलंक-भर दूर हो जाय ।" मुनिवेषी देवों ने 'एवमस्तुकहा: और, वे वहाँ से चल दिये । समय पा कर, यशा ने दो पुत्रों को प्रसव किया। पुरोहितजी का परिवार पुलकित हो उठा। परन्तु पुरोहितजी के मन में, मुनियों के कथनानुसार, दीक्षा का भय ा घुसा। इस भय से अपना पिंड छुड़ाने के लिए उन्हों ने अपने परिवार, पुरोहित-पन, पुश्तैनी प्रतिष्टा, और अपनी अटूट सम्पत्ति, सभी से, सदा के लिए अपना नाता तोड़, वे अपनी पत्नी और पुत्रों को ले. सुदूर भयानक पहाड़ियों में जा बसे।
भृगु पुरोहित ने ज्योंही देखा, कि बच्चे अब अपने विचार प्रकट करने लगे हैं, वे अब उन्हें जैन-मुनियों की संगति कभी भूल कर भी न करने की शिक्षा देने लगे। वे रोज़ उन्हें सिखाने लगे, कि उन के पास, जो कपड़े में पात्र रहते हैं, उन पें वे तरह-तरह के भयानक हथियार छिपाये रखते हैं। वे समय
[३४]