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मेर-शालिभद्रजी चरी के लिए आये। उन के मान-स्त्रमन्ग के पारणे का वह दिन था। यालक अभी थाली के पास जा कर बैठा ही था । खीर अभी ठंडी हो रही थी। उस ने दूर ही सं मुनि को उधर पाते देखा । 'विनु हरि शमा मिलहि नहिं सन्ता।' दर्शनों से, उस के भावों को शुद्धि. अचानक हो गई। दौड़ कर वह मुनि के पास गया और उन्हें अपने घर पर बुला लाया । संगमने खीर के दो वरावर भाग करने के लिए. थाली में, अँगुली से एक रेखा कर दी । ग्वीर का प्राधा भाग मुनि के पात्र में बहराने के लिए उस न थाली उठाई और उस इंड़ली। परन्तु तरल पदार्थ होने के कारण वीर सारी की सारी मुनि के पात्र में जा गिरी । जिस खीर के लिए, उस ने इतना नाच-कृद मचाया भा, सब की सय मुनि को यहग देने पर भी, अब उसे सन्तोष था। पश्चात्ताप से इस समय वह बिलकुल पर था! उलटे, वह अपन भाग्य की सराहना कर रहा था। माँ भी इतने में वापस या गई।
सरल हृदय माँ ने समझा, बालक बढ़ा ही भूखा था। सारी खीर खा चुका है। उसे फिर भी लेने के लिए पूछा। और, रही हुई खीर, बालक को परोस दी। 'सारी खीर खा चुका है, ' माँ की इस टोकार से, बालक के पेट में जोरों से दर्द होने लग पड़ा। वह धरती पर गिर पड़ा । और, दवादाम की बात होते ही होते, मछली की भाँति तड़प-तड़प कर मर भी गया। निर्धन माता के बुढ़ापे की वैशाखी टूट गई। श्राकाश उस पर फट पड़ा । संसार, अव उर्स के लिए सूना था। संगम, शरीर छोड़ कर, पुनः राजगृह के गोभद्र सेठ के घर, पुत्र के रूप में, पाया। सेट का घर, अमरावती के वैभव
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