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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
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प्राणों को शिथिल बनाती हुई साहस और शंकाएँ जब भगदौड़ मचाने लगती है; ऐसे गाढ़ संकट में, हृदय का कोई सहारा जब नहीं रह जाता: रोना ही उस क्षण हृदय का हाथ श्रा कर पकड़ता है। वहीं, उस को दम-दिलासा बंधाता है। रुदन करनेवाले की कातर श्राशा, जव छलक छलक कर सिसकियाँ भरती हैं; रोने की तरल तरंगों में तब रन्द्रों का सिंहासन हिल जाता है। उसी क्षण इन्द्र श्राँसुश्रों की जंजीरों में वध पाते हैं। और, जब दुखिया के आँसुओं में इन्द्र स्नान कर लेते हैं, तव करुणा-भरी आँखों से देख कर, वे उस यात का सारा दुख हरण कर लेते हैं।
माँ ने चालक को बहुत-कुछ समझाया-त्रुझाया । परवालहट ही तो थी। वह य मानने ही कर लगता ! निराधारमाता अव तक अपने को सँभाले हुई थी। अब तो उस के हृदय की वाँध भी टूट गई। उसे अपने गत-वैभव और गुज़रे ज़माने की याद हो आई । वह मन ही मन कह रही थी, " हाय! एक दिन वह था, जब मुझ से मट्ठा माँगने कोई पाता और मैं दूध उसे देती थी ! और, एक अाज हमारी दशा है ! चने थे, तव चवानेवाले नहीं थे और जव चवानेवाले हुए, तब चनों का कहीं पता नहीं। यह सब दिनों का फेर है।" अन्त में दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। पाड़-पड़ोसियों ने श्रा कर कारण की तहकीकात की। तत्काल ही उपाय ढूंढ़ निकाला गया। इधर-उधर से खीर का सारा सामान जुट गया। खीर वन गई । माँ ने बच्चे को पुकार कर, उसे परोस भी दी। इतना कर वह तो पानी भरने के लिए चल दी। पीछे से, एक आकस्मिक घटना घट गई । एक मुनि गो
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