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सेठ- शालिभद्रजी
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मैं नहीं श्राया था, उस के पिता पशुधन से भरे पूरे थे । 'परन्तु 'संगम' का संगम होते हो, पिता के भाग्य ने पलटा खाया । पिता, संसार से चल बसे । ग्वाले के सोने का घर राख हो गया। परिवार के बीसियों व्यक्तियों में से केवल संगम और उस की माता, घे दो जन-मात्र बच रहे । अव मज़दूरी ही उन के जीवन का एक मात्र घाधार था । ज्यों-त्यों कर के पूरे थाट वर्ष निकल गये। संगम, जैसे-जैसे सयान होता जाता था, माता, अपने मन ही मन मैं, उतनी ही ऊँची श्राशाएँ, लगा रही थी। कुछ भी हो, संगम, श्रीखिरकार, अभी बालक ही था। माता के मन और परिश्रम को भापन की शक्ति अभी उस में ज़रा भी न थी । खीर खाने की हट, उस ने एक दिन पकड़ ली। परन्तु घर में तो फ़ाक कशी का पैरपसारा था । मड्डा जुटाना तक, बेचारी माता को बड़ा मँहगा पढ़ता था; तो खीर की तो फिर बात ही कहाँ से चलती? बालहर जो भी होती ज़बर्दस्त है; तब भी जब वह पूरी नहीं होती, चालक मचल पड़ते हैं; रोना शुरू कर देते हैं। रोना, बालकों का आधार है। वह निर्धनों का धन और निर्बलों का बल है । जहाँ मज़बूरी होती है, वहाँ तो रोने ही का एकच्छत्र राज्य होता है । और, क्या-क्या कहें, रोना, प्राणों का गायन है । मूकों की, वह, भाषा है। वह असहायों का श्राश्रय और हताशो की एक मात्र श्राशा है। मतलब की इस दुनिया में, रोना, सुरपुर का धन है। रोने से जब गीले आँसू टपटपाते हैं, कितने ही पाषाण हृदय तव गल कर पानी-पानी हो जाते हैं । साधनों के संसार में जब सोलहों श्राना दिवाला पड़ जाता है; चेक्सी की बदली सघनरूप से जब चारों और छा जाती है।
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