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राजपिप्रमन्त्र
" श्रेणिक ! कुछ ही क्षण पहले जिन मुनि के सम्बन्ध में तूने मुझ से पूछा था, उन्हीं को अब कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो चुका है। उन्हीं के कैवल्य प्रामि महोत्सव को मनाने के लिए, ये देवगण, इधर से उधर और उधर से इधर दौड़-धूप मचा रहे हैं:भगवान ने फर्माया । भगवन् ! क्या, कैवल्य ज्ञान ? अभी कुछ ही क्षणों के पहले जिस के लिए सातवाँ नर्क सजाया जा रहा था, उसी को कैवल्य - ज्ञान की प्राप्ति ? रसानल और स्वर्ग का यह सम्बन्ध कैसा ? बात ही बात में, राई और पर्वत के इस अन्तर का रहस्य घट केसे गया ? " श्राश्वर्य मं श्राकर, श्रेणिक ने भगवान से विनम्र होकर पूछा । भगवान् ने फ़र्माया, " राजन ! चकित होने की इस में कोई बात नहीं। यह मन ही है, जिस के फेर में पड़कर, मनुष्य, नारकीय एक क्षण में बन सकता है । श्रर, उसी को अपने अधिकार में कर लेने पर, वही मनुष्य, दूसरे क्षण में स्वर्ग का एकच्छत्र शासक भी सहज ही में बन सकता है। एक क्षण में मुनि के विचार इतन मैले हो गये थे, कि उस समय यदि मृत्यु वे पा जाने, तो अवश्य सातवें नर्क में जाकर जन्म वे पाते । परन्तु दूसरे कुछेक क्षणों में ही मुनि के मन में सत् - विवेक का विवरण हुआ । राजा कालस्य कारणम्' सत्-विवेक राजा के हृदय देश में रहते हुए, कलुषित भाव मुनि के हृदय में फिर पनपन ही कैसे पाते ! हृदय में विवेक विराजमान होते ही, सारे धन-घाती कर्मों का मृलोच्छेदन हो गया। बस,
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सेल्स की सम्प्राप्ति उन्हें हो गई है । श्रतः तुम भी जब तक जीश्रो, मन के एक मात्र मालिक बन कर ही रहो । मन की एक क्षण मात्र की गुलानी में रहना, रौरव नर्क में
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