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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
दम, क्षमा के सागर मुनि, अपने परमोज्जवल शुक्ल विचारों के ध्यान में तल्लीन थे। कलुपित भावों का लेश-मात्र भी समावेश उन के हृदय में उस समय न था। फलतः अपने सम्पूर्ण घनघाती कमों का एकान्त नाश करते हुए, उसी क्षण केवल-ज्ञान की अभूत--पूर्व प्राप्ति उन्होंने कर ली । और, मोक्ष-धाम के अधिकारी वे वन गये।
संतो की क्षण भर की संगति और दर्शन से जन्मजन्मान्तरों के पापों का क्षय, सहज ही में, हो जाता है। मुनि के दाँतों की पंक्ति को देख कर, सिंहनी जरा ठिठुक-सी. रही । वह कुछ परिचित-सी उसे जान पड़ी। उधर,मुनि कीर्तिध्वज ने जब उसे यूं विचार-मग्न देखा, अपने ज्ञान के वल जान. लिया, कि "यह तो वही कमल प्रभा रानी,सुकौशल की स्नेहमयी माता,है।" वे उसे सम्बोधित कर कहने लगे, "ओ पापिनी। श्राज तूने अपने ही पुत्र का प्राणान्त कर दिया। तुझे धिक्कार है ! धिक्कार है!! सैकड़ों वार धिक्कार है !!!" मुनि की इस मार्मिक वाणी को सुन कर, वह और भी विचार में पड़ गई। सोचते-सोचते, जाति-स्मरण-ज्ञान उसे हो पाया। अपने पूर्व जन्म की सारी चातें, एक-एक करके, उस के सामने श्रा-श्रा कर नाचने लगी। अब तो अपनी दुष्कृति पर उसे घोर पश्चाताप हुआ । अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के मिस, मन ही मन प्रतिज्ञा उस ने की, कि "अाज से आगे, कोई भी ऐसा कर कर्म, मैं कभी भूल कर न करूँगी।" तदनुसार,मार्ग से उठ खड़ी वह हुई। चल कर, अपनी कन्दरा में, वह जा
बैठी । यों, कठिन भूख-प्यास को सहते हुए, शीघ्र ही अपना - अन्त उस ने कर डाला । मृत्यु पा कर, आठवें स्वर्ग में वह .
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