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जैन जगत् के उज्ज्वल नारे
चलते हुए मनुष्यों को, अपने मनोरंजन के लिए, ग्वटमल-पिस्प की भाँति, पीस देना, यह तो उनके बायें हाथ काल-सा था। उन का हृदय पापाण से भी अधिक कठोर और तलवार से भी अधिक तीखा था। चित्तजी' इन्हीं के बड़े भाई, और राज्य के प्रधान मन्त्री थे। श्रावस्थि [भ्यालकोट] के गाजा 'जित. शत्रु' उन दिनों, प्रदेशी के एकमात्र अभिन्न मित्र थे । राजाप्रदेशी ने, एक बार अपन मंत्री को, कुछ बहुमूल्य यन्तुग दे कर, जित-शत्रु के यहाँ भेजा। संयोगवश, केशी-श्रमण नामक निर्गन्ध मुनि भी उन दिनों वहीं विराजे हुए थे। मुनिक उपदेश की चारों श्रोर बड़ी धूम थी । उस को श्रवण करने के लिए, यही कारण था, कि जनता बरसाती नदियों की भाँति उमं पढ़ती थी। मन्त्री को भी अनायास ही यह मौका मिल गया । 'गजा कालस्य कारणम्' के अनुसार, नास्तिकवाद ने इन से भी अपना नेह और नाता जोड़ रखा था । परन्तु लगातार क मुनि के उपदेशों ने मन्त्री की मनोवृत्ति को बदल दिया । अब से शास्तिकवाद के अनुयायी वे बन गये ।मुनि से गृहस्थ धर्म को भी मन्त्री ने धारण कर लिया। साथ ही, "सिताम्बिका में, यदि मुनियों का श्रागमन हो जावे, तो कट्टर नास्तिक राजा के जीवन को भी, सुपथ की ओर लाया जा सकता है ," ऐसी प्रार्थना भी, मन्त्री ने, विनीत-भाव से, मुनि के धागे की ! तब मन्त्री सिताम्बिका को लौट गया।
नवनीत बड़ा ही स्निग्ध, स्वादिष्ट और हितकर होता है; परन्तु अपने ही ताप से वह तप जाता है। सन्त-हृदय उससे भी अनोखा होता है । वह तो परायों के ताप ही से दिन-रात तपता रहता है ।प्रदेशी के परलोक को सुधारना, मुनि ने
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