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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
उसी दिशा में । यही कारण था, कि न तो संसार का भोग ही उन्हें भाता और न राज-कार्य ही से किसी प्रकार की श्रभिरुचि उन्हें थी । महाराज के मन की बात को दीवान ताड़ गया । एक दिन वह बोला, " महाराज, बिना पुत्र के उत्पन्न हुए, यूं वैराग्यवान् बन कर रहना और मुनि बनने की भावना को प्रोत्साहन देना, तो श्राप जैसे जिम्मेदार व्यक्तियों को किसी भी कदर योग्य नहीं । जैसे, आप के पिताजी ने, प्रजा के कटों को सुनने के लिए, आप को नियुक्त कर के दीक्षा ली है, ठोक उसी प्रकार, आप भी अपने उत्तराधिकारी का निपटारा, अपने पुत्र के हाथों कर, खुशी-खुशी मुने वन सकते हैं। महारानी को भी इस बात का पता लग गया ।
कुछ ही दिनों के बाद, रानो की कोख से एक पुत्र पेश 'हुआ। राजा को इस बात का पता तक न चलन दिया । क्यांकि, रानो को राजा के मुनि वन जाने का भय था । महाराज एक दिन अपने गवाक्ष म बैठे थे । सूर्य ग्रहण उस दिन था । जगत् की प्रत्येक घटना, ज्ञानी के लिए, एक एक प्रकार की प्रयोगशाला ही का काम देती है । वेश्याओं के नाच तक को देख कर, उन क मन-मानस में ज्ञान की उतुंग तरंग उठने लगती हैं। मृदंग की ' डुबक डुबव. ' से उन्हें ' डूबन ' का भान होता है । सारंगी की' कुन्न-कुन-कुन्न को ध्वनी म 'कौन डूबता है - कौन डूबता है' की ध्याने उन्हें सुनाई देती है । और, वैश्या के द्वारा, दर्शकों की ओर, जो बार बार हाथों को लम्बा करके इशारा किया जाता है, उस से उन के डूबने का सन्देश चे पाते हैं । आखिरकार, मनुष्य अपनी भावनाओं का पुतला तो होता ही है । सूर्य ग्रहण से, महाराज कीर्ति ध्वज
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