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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
तो सारी जहाज़ ही को उलटा कर, तेरा और तेरे सारे साथियों का भी काम ही तमाम किये देता हूँ ! अरक ! क्यों, ज़रासी बात के लिए, अपने सारे साथियों के प्राण-नाश के खर पाप को अपने पहले बाँधता है ! समय है; अभी भी सम्हल जा !
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" देव ! तू तो है ही क्या ! स्वयं इन्द्र भी प्राकर प्राणों का प्रलोभन मुझे इस समय दें, तो भी धर्म के पथ को मैं छोड़ नहीं सकता । " अरणकजी ने देव से कहा । श्ररणकजी पर अभी दुहरी मार थी। देव का प्रकोप तो एक ओर अपनी भीषणता दिखला ही रहा था। दूसरी ओर, उन के साथी भी, धर्म छोड़ देने के लिए उन्हें विचलित कर रहे थे । वे उन्हें डाट-डपट रहे थे; भाँति-भाँति से कोस रहे थे; उन के प्राणों के नाश से, उन के कुटुंबियों के प्राण-नाश की शंका उनके सामने वे उपस्थित कर रहे थे। अरणकजी को वे समझा रहे थे, " मैं धर्म छोड़ता हूँ, " इतना ही तुम्हारे कहने भर से सारा झगड़ा जब तय हो जाता है, तो कह क्यों नहीं देते ! समझलो, कोई पाप भी इस से कभी लगा, तो आलोचना कर ली जावेगी । फिर, तुम्हारा धर्म ही पहले इतना अधिक है, कि यह पाप तो उस की पासँग मैं भी नहीं आ सकता ! इस के उपरान्त भी कोई पाप यदिकोई हुआ, तो वह हमारे सिर-पल्ले पड़ेगा ।" यह सुनकर के श्री. अरणकजी प्रशान्त महासागर के समान गम्भीर थे । अपने विचारों पर ध्रुव के समान वे अटल थे। ताप पर ताप देते रहने पर जैसे, कुन्दन की कान्ति और भी फूट निकलती है, देव और साथियों के भीपण वाक् प्रहार ने वही काम उन के लिए किया। साथियों ने तब तो जीवन की आशा ही छोड़ दी।
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