SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुभावक श्ररणकजी वे वारवार रणजी को और भी अधीर करने की चेष्टा कर ने लगे । देव ने भी एक बार उन्हें और समझाया । परन्तु -" 'धर्म का रंग रकजी के हृदय में जड़ पकड़े बैठा था। सारी बातों को एक कान से उन्हों ने सुना । और दूसरे से 'फुर्र ' कर के निकाल दिया। क्यों कि, वे भली भाँति जानते थे, कि "विपत्ति जो भी भयंकर सर्प के समान होती है, परन्तु उसके गुण सर्प की मणि से अधिक कीमती नहीं, तो कम भी वे किसी प्रकार नहीं होते । 5 देव ने जहाज़ को उठाया । श्राकाश में वह उसे ले उड़ा । साथियों ने व तो बिलकुल ही श्राशा, जीवन की, छोड़ दी । तरह-तरह से अरणकजी को कोसते हुए फूट-फूट कर वे रोने लगे | हज़ारों तूफ़ान आये ! और धर्म-प्राण श्ररणकजी के अटल विश्वास रूपी अचल से टकरा कर चूर-चूर हो गये । देव को श्ररणकजी के दृढ़-धर्मी होने का परिचय मिला । तत्काल ही सारे उपसगों का एकाकी अन्त हो गया । दिव्य रूप को धारण कर देव, श्ररणकजी के सामने आया। उस ने अपने अपराधों की बार-बार क्षमा चाही । दो कुण्डल की जोड़ियां भी भेंट में उन्हें उसने दी। तब वह अलोप हो गया । साथियों ने भी समझ पाया, कि वे अरणकजी ही थे, एक मात्र जिन्हों ने ही उन्हें आये हुए सम्पूर्ण उपसगों से बचाया । दृढ़ धर्म का ममं भी आज ही उन्हें जान पड़ा । जीवन में उन्नति, सुधार और अपार श्रानन्द कारण एक मात्र धर्म ही है, "सभी साथियों के मुँह से सहसा निकल पड़ा । श्रच तो शरणकजी से अपने अपराधों की क्षमा वे चाहने लगे । जहाज़ भी सानन्द दक्षिणी समुद्री तट पर था लगा । जहाज़ से उतर उतर " [ ११ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy