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जैन
जगत् के उज्ज्वल नारे
रीझ पाना । रीझ पाते ही कुमारी, कुमार को सौंप दी जावेगी ।
वह भी दिन श्राया । एक दिन एक राजधानी में पहुँच कर खेल रचा गया । इस निपुण नट के नामी खेल को देखने के लिए, जनता की भीड़ बरसाती कीड़ों-मकोड़ों की भाँति उमड़ पड़ी । खेल प्रारम्भ हुआ । कुमार ने क़माल कर दिया । उनकी चतुराई को दुबारा देखने की इच्छा से, बीच-बीच में कई बार
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वंस मोर, ; वंम मोर ' ( एक बार फिर एक बार फिर ) के नारे बुलन्द हुए। फिर भी राजा, रोझ देने में हिचक रहा था । उस का इरादा था, की नट-कुमार, नीचे गिर पढ़े और वह स्वयं उस के बदले, उस नट कुमारी को हथियाल । दोनों श्रोर अपने-अपने वल की, पूरी खींचातानी थी। एक थोर, कुमार अपनी कला की बारीकियां दिखाने में लगे थे; दूसरी ओर, राजा री देने में उतना ही अधिक खींचातानी कर रहा था । भावों की शुद्धता और अशुद्धता का यह इन्द्र युद्ध था, जो देखते ही बन पड़ता था । इतने ही में एक अनोखी घटना घटी । कुमार की अग्नि परीक्षा के अन्तिम क्षण का अन्त हुआ । दूर ही से, ऊपर चढ़े हुए, कुमार ने किसी निर्ग्रन्थ-मुनि को. श्राहार पानी के हेतु, एक सेठ के घर में जाते देखा। उन्होंने यह भी देखा, कि सेठ की रूप-यौवन-सम्पन्न स्त्री मुनि को भोजन वहरा रही है। मुनि की नज़र नीचे को है । वे कह रहे हैं, " वहिन, बस करो । श्रव नहीं; श्रव नहीं । यह देखते ही कुमार ने अपनी दशा की तुलना, सुनि महाराज के श्राचरण के साथ की। मुनि के श्रात्म-संयम और मनोनिग्रह की हृदय ही हृदय में हज़ारों चार प्रशंसा कुमार ने की। दूसरी ओर, अपने काम-विकार की निन्दा भी भरपेट उन्होंने की।
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