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ललितांग- कुमार
की दृढ़ प्रतिक्षा की परीक्षा के हेतु, उन मनुष्यों ने भी, " भले का बदला बुरा ही होता है; भला तो कभी भी नहीं 1 देखो, अभी एक राजा श्राया था, और उसने इसी वट वृक्ष के नीचे विश्राम लिया | पर जाने समय अपने नोकरों को हुक्म देता गया कि हाथी के खाने के लिए पत्ते इसी वट वृक्ष के लाये करो । इस बार भी सज्जन ही का सिर ऊँचा रहा। पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार, अपनी दोनों श्राँ, एक पैने उस्तुरे से निकाल कर, कुमार ने सज्जन के हाथों सौंप दीं नेत्रों को लेकर सज्जन चलता बना। कुमार का मन-मानस इस बार भी श्रानन्दो - इलिन था। क्योंकि, अपनी श्रग्नि-परीक्षा में भी वह खरा सोना निकल आया था। सज्जन ने जाते-जाते भी नानाकशी उस पर की। वह बोला, "अच्छा, भलाई करने के नाते, व जन्म-भर रोते रहना ।
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कुमार को, उस सुनसान जंगल में बैठे-बैठे, शाम हो श्रई । परोपकार ही एक मात्र उस का पथ प्रदर्शक श्रव था । शाम होते हो, लेखों का एक झुंड, वासे के लिए, उस विशाल वट वृक्ष पर, श्राकर बैठा । विश्रान्ति के समय एक युवक हंस अपने टीले से बोला, " हम खाते तो असली मोती हैं; पर बदले में मनुष्य समाज का उपकार क्या करते हैं ! कुछ भी नहीं । "" नहीं कदापि नहीं ? जानकार लोग हमारी वीठ का उत्तम और श्रवणनीय उपयोग ले सकते हैं । इसी चट वृक्ष पर जो लता यह लगी हुई है, उसके और हमारी बीट का मिश्रण, नेत्र-हीन वही जन्मान्ध को दिव्य ज्योति प्रदान करता है | परोपकारबुद्धि से कोई उपयोग तो उसका ले कर कभी देखे !" पहले
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पत्तों का स्वरस को नेत्र देता है ।