________________
जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
संसार, प्रति पल परिवर्तन शील है। उधर ध्यानस्थ मुटि का मन भी पलट चुका था । यह दुर्दम्य मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है । सिर की ओर हाथ बढ़ाते ही, राजर्षि प्रसन्नचन्द्र मुनि के विचारों की दिशा एक दम चदल गई। उन्हें अपने साधुत्व का स्मरण हो आया । एक चोर, संसार का एकान्त त्याग और दूसरी ओर, पुनः मारकाट तथा संग्राम से सम्बन्ध ! संसार के ये गँदले विचार उन के हृदय में आये ही क्यों ? इस के लिए, मुनि वार वार श्रात्मधिक्कार के शिकार बनने लगे। मन की श्रगम गति का सच्चासच्चा पता मुनि को श्राज लगा । वे उसे बार-बार धिक्कारने और समझाने बुझाने लगे । वे कहने लगे, "एक चार साहस कर के सिंह की मूँछों पर भी हाथ कोई रख सकता है: परन्तु मन को मसोस कर उसे अपने हाथों में कर लेना, सचमुच में, महान् कठिन काम है । इसीलिए बीत-राग प्रभु ने भी तो फ़र्माया है, कि ।
$6
एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं; सव्व-सत्त - जिला महं ॥
99
भावों की इस एकान्त शुद्धता के कारण, मुनि के सम्पूर्ण घनघाती कर्मों का उसी क्षण नाश हो गया । और, कर्म-नाश से कैवल्य - ज्ञान की प्राप्ति उन्हें हो गई । जिसके उपलक्ष्य में, आकाश की दशों दिशाओं से श्राश्रा कर, देवी तथा देवता लोग, कैवल्य-प्राप्ति-महोत्सव को मनाने लगे । उसी क्षण, वीर भगवान् की सेवा में उपस्थित राजा श्रेणिक ने, उन देवी देवताओं को, आकाश मार्ग में इधर-उधर हर्षित हो कर जाते हुए देखा। उन्हों ने भगवान् से इस का कारण पूछा। उत्तर में
[ १६० ]