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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे राज्य की ओर से, किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया गया था। एक दिन, वही नवीन पुरोहित, बड़ी सज-धज के साथ, कम्पिल के घर के सामने से निकला। उसे देख, कम्पिल की माता को अपना पूर्व-वैभव याद हो पाया। उसी की स्मृति में वह फूट-फूट कर रोने लगी। अबोध बालक ने अपनी माता से यूँ पालाप-विलाप करने का कारण पूछा।" प्यारे लाल ! एक दिन वह था, जव तुम्हारे स्वर्गस्थ पिताजी भी इसी ठाटवाट और सज-धज के साथ निकलते थे। जिस पद पर, अाज यह पुरोहित है, उसी पद पर कभी तुम्हारे पिता जी भी थे । राज्य में उन का सोलह आना सम्मान था। अब वह सम्मान तो एक ओर रहा; तुम्हारे अवोध, अज्ञान और कम-उम्र होने से, वह पुरोहिती का पुश्तैनी पद तक अपने वंश से छिन गया। कब वह दिन होगा, जब तुम सबोध, सज्ञान और वालिग होगे। बस, इसी बात का अचानक स्मरण मुझे हो आया; और मेरी छाती भर आई । " उत्तर में, " यदि ऐसा ही है, तो मैं भी लगन के साथ, उसी प्रकार के विद्याध्ययन में, आज ही से लग पडूं, " कम्पिल ने हकवकाते हुए कहा । "वेटा ! वैसी विद्या यहाँ तो तुम्हें किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती। क्योंकि, यहाँ के लोग हम से ईर्ष्या करते है। परन्तु हाँ, एक उपाय है। यदि तुम सावत्थी ( स्यालकोट) में चले जाओ, तो वहाँ तुम्हारे पिताजी के परम मित्र, पण्डित इन्द्रदत्त उपाध्याय रहते हैं । वहाँ तुम्हारा मनोरथ सफल हो सकता है । वे सच्ची लगन के साथ, तुम्हें विद्याध्ययन करा सकेंगे।" माता ने कहा। . इस पर, कम्पिल मचल पड़े। उनके हृदय को माता की
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