Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिको प्रस्तावना प्रकारान्तरसे उपपाद और मारणान्तिक समुद्घातमें परिणत त्रस तथा लोकपूरणे समुंद्धातगत केवलियोंकी अपेक्षा समस्त लोकको ही सनाली कह दिया है । गा. ९-१९४ में रत्नप्रभादि सात पृथिवियोंमें स्थित नारकियोंके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंके नाम, विन्यास, संख्या, विस्तार, बाहल्य एवं स्वस्थान-परस्थान रूप अन्तरालका प्रमाण प्ररूपित है । मा. १९५-२०१ में नारकियोंकी संख्या, गा. २०२-२१५ में उन की आयु, गा. २१६.२७० में शरीरोत्सेध और गा. २७१ में अवधिविषयकी प्ररूपणा की गई है। आगे १२ गाथाओंमें नारकी जीवोंमें सम्भव गुणस्थानादि २० प्ररूपणाओंका दिग्दर्शन कराया गया है।
गा. २८१.२८६ द्वारा प्रथमादि पृथिवियोंमें जन्म लेने योग्य प्राणियोंका निर्देश कर गा. २८७ में जन्म-मरणका अन्तरकाल और गा. २८८ में एक समयमें उत्पन्न होनेवाले व मरनेवाले नारकियों की संख्या निर्दिष्ट है । गा. २८९.२९२ में बतलाया गया है कि नरकसे निकले हुए जीव कर्मभूमिमें गर्भज संज्ञी पर्याप्त तिथंच या मनुष्य होते हैं। किन्तु सप्तम पृथिवीसे निकला हुआ जीव तियच ही होता है । नारक जीव संख्यात वर्षकी आयुवाले न्याल, दंष्ट्री ( दाढ़ोंवाले सिंह-व्याघ्रादि ), गृद्वादिक पक्षी एवं मत्स्यादिक जलनर जीवोंमें उत्पन्न होकर पुनरपि नरकोंमें उत्पन्न होते हैं। कोई भी नारक जीव अनन्तर भवमें केशव, बलदेव व चक्रवर्ती नहीं हो सकते। तृतीय पृथिवी तकके नाक जीव तीर्थ कर, न्तु तकके चरमशरीरी, पंचम तकके संयत, छठी तकके देशवनी एवं सातवीं तकके कोई जीव केवल सम्यग्दृष्टि ही हो सकते हैं।
प्रबचनसारोद्धार ( गा. १०८७-९०) में भी यही क्रम पाया जाता है। विशेषता इतनी है कि वहां प्रथम पृथिवीसे निकलकर चक्रवर्ती और द्वितीयसे निकलकर बलदेव व वासुदेव होनेकी भी सम्भावना बतलायी गई है।
षट्खण्डागम' ( जीवस्थान गत्यागति चूलिका) और तत्त्वार्थराजवार्तिकमें सप्तम पृथिवासे
१ अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया णिरयादो णेरइया उव्वट्टिदसमाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? ॥२०३॥
एक्कं हि चेव तिरिक्खगदिमागच्छंति ति ॥२०४॥ तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा छण्णो उप्पाएंति-आभिणिबोहियणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, ओहिणाणं णो उपाएति, सम्माभिच्छत्तं णो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ॥२०५॥ पु. ६,
पृ. ४८४. २ सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेभ्य उद्वर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यश्वायाताः पंचेद्रिय
गर्भज-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुःषूत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र चोत्पन्नाः सर्वे मति-श्रुतावधि-सम्यक्त्व-सम्प मिथ्यात्व-संयमासंयमान नोत्पादयन्ति । त. रा. ३, ६, ७.
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