Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तलापिसामाणिः
ज्ञानातरं यदा ज्ञानादन्यस्माचेन वेद्यते। तदानवस्थितिप्राप्तेरन्यथा ह्यविनिश्चयात् ॥ ५४॥ अर्थज्ञानस्य विज्ञानं नाज्ञातमवबोधकम् ।। ज्ञापकत्वाद्यथा लिंगं लिंगिनो नान्यथा स्थितिः॥ ५५॥
नैयायिकोंका कहना है कि ज्ञान (पक्ष ) दूसरे ज्ञानसे जानने योग्य है ( साध्य ) क्योंकि वह प्रमेय (हेतु ) है। जैसे कि घट (छत)। ज्ञानके स्वकीय शरीरमें स्वके द्वारा स्वका ज्ञान नहीं हो पाता है। कितनी ही पैनी ललवार हो स्वयं अपनेको नहीं काट सकती है। तैसे ही ज्ञानके स्वरूपमें स्वयं ज्ञान होनेका विरोध है । हां, दूसरे ज्ञानसे प्रकृत झानका प्रत्यक्ष हो सकता है, आचार्य कहते हैं कि यह भी कहना गंवारोंकासा कथन है । क्योंकि जब दूसरे ज्ञानसे प्रथम ज्ञानका संवेदन होना माना जायगा तब तो दूसरे ज्ञानका मी तीसरे बामसे वेदन माना जायगा, इस प्रकार चौथे या पांचवें आदि संवेदनशानोंकी आकांक्षा बढ जानेसे अनवस्था दोषकी प्राप्ति होगी। अन्यथा यानी अनवस्था दोष के निवारणार्थ तीसरे, चौथे आदि ज्ञानोंसे नहीं विशेषतया निश्चय किये गये ही दूसरे ज्ञानसे यदि पहिले अर्थज्ञानका विज्ञान होना मान लिया जायगा तो तीसरे ज्ञानसे नहीं जान लिया गया दूसरा ज्ञान भला पहिले बानका बोधक कैसे होगा ! जब कि पहिला अर्थज्ञान दूसरे ज्ञानज्ञानसे जान लिया गया होकर ही अर्यको जानता है। इसी प्रकार दूसरा तीसरेसे तीसरा चौथे आदिसे ज्ञात हुये ज्ञान पूर्वके शानोंको जान सकेंगे। अज्ञात विज्ञान किसीका बोधक नहीं होता है। क्योंकि वह ज्ञापक हेतु है। जैसे कि अंधे या सोते हुए मनुष्यको धूमकी सत्तासे अग्निका ज्ञान नहीं हो पाता है। किन्तु जान लिया गया ही धूम हेतु अग्निसाध्यका ज्ञापक है। सभी ज्ञापक ज्ञात होते हुये ही अन्य ज्ञेयोंके ज्ञापक होते हैं। अन्य प्रकारसे व्यवस्था नहीं है। अतः अनवस्था दोष हो जानेसे ज्ञान दूसरे ज्ञानोंसे वेष नहीं है। किन्तु स्वसंवेध है । सूर्य या दीपक स्वका भी प्रकाशक है।
नबर्थज्ञानस्य विज्ञानं परिच्छेदकं कारकं येनामातमपि शानांतरेण तस्य ज्ञापकं स्थात् अमवस्खापरिहारादिति चितितमावम् ।।
पहिले अर्थज्ञानको जाननेवाला दूसरा विज्ञान कोई कारक हेतु तो नहीं है, जिससे कि तीसरे आदि ज्ञानोंसे नहीं ज्ञात होता हुआ भी उस पहिले 'अर्यज्ञानका ज्ञापक हो जाता, और नैयायिकोंके यहां आनेवाली अनवस्थाका परिहार होजाता । किन्तु ज्ञान, शब्द, लिंग, आदिक तो ज्ञापक हेतु हैं । कारक हेतुओंको जाननेकी आवश्यकता नहीं है। विना जाने हुये कांटा लग गया या अनि छगयी अथवा पैर फिसलगया तो वे कांटे आदिक पदार्थ स्वजन्यवेदना कार्यको अवश्य पैदा करेंगे। तुम्हारे नहीं, जाननेकी प्रार्थना नहीं स्वीकृत होगी । कारक हेतु अपनेको बात करलेनेकी