Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तला चिन्तामणिः .
.... आत्माका प्रत्यक्ष नहीं होता है । इस प्रकारके मतको हम बहुलता करके उपयोग स्वरूप आत्माको साधनेवाले आद्य प्रकरणमें निरस्त कर चुके हैं। इस कारण फिर उस आत्माके अप्रत्यक्षपनेका यहां निरास नहीं करते हैं। भावार्थ-पहिले सूत्रके अवतार प्रकरणमें " कर्तृरूपतयावित्तेः" से लेकर " कथंचिदुपयोगात्मा" इस वार्तिकतक मीमांसकोंके प्रति आत्माका प्रत्यक्ष होना सिद्ध कर दिया है । तिस कारण कथंचित् प्रत्यक्षरूप ही आत्मा स्वीकार करना चाहिये । उसका विज्ञान रूप परिणाम भी प्रत्यक्ष है। इस प्रकार व्यवस्था करना मीमांसकोंको श्रेष्ठ पडेगा । क्योंकि इसमें प्रतीतियोंका अतिक्रमण नहीं है । प्रतीतिसिद्ध पदार्थोको स्वीकार कर लेना सज्जनोंका स्वधर्म है।
प्रत्यक्षं स्वफलज्ञानं करणं ज्ञानमन्यथा। इति प्राभाकरी दृष्टिः स्खेष्टव्याघातकारिणी ॥ ४८ ॥ कर्मत्वेन परिच्छित्तेरभावो ह्यात्मनो यथा । फलज्ञानस्य तद्वचेत्कुतस्तस्य समक्षता ॥ ४९ ॥ तत्कर्मत्वपरिच्छित्तौ फलज्ञानांतरं भवेत् । तत्राप्येवमतो न स्याद्वस्थानं कचित्सदा ॥ ५॥
प्रमितिके जनक ज्ञानको करण ज्ञान-कहते हैं। और उस करणज्ञानसे उत्पन्न हुये अधिगमको फलज्ञान मानते हैं । आत्मामें उत्पन्न हुये. . फलज्ञानका स्वयं प्रत्यक्ष हो जाता है। किन्तु करणज्ञान दूसरे प्रकार है । यानी करणज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं होता है । इस प्रकार प्रभाकरोंका दर्शन (सिद्धान्त ) तो अपने ही इष्टतत्त्वोंका व्याघात करनेवाला है । क्योंकि जिस प्रकार आत्माकी कर्मपनेकरके परिच्छित्ति होनेका अभाव है, अतः आत्माका प्रत्यक्ष हो जाना नहीं माना है, तिस आत्माके ही समान फलज्ञानकी भी यदि कर्मपनेसे ज्ञप्ति नहीं होती हुयी मानी जावेगी तो उस फलज्ञानका प्रत्यक्ष हो जानापन कैसे सिद्ध हुआ ? बताओ । यदि फलज्ञानका प्रत्यक्ष होजाय इसलिये उस फलज्ञानमें भी कर्मपनेकी परिच्छित्ति करलोगे तब तो अर्थके समान · कर्म बने हुये फलज्ञानका अधिगम होना रूप दूसरा फलज्ञान मानना पडेगा और उस फलज्ञानका भी प्रत्यक्ष तभी हो सकेगा, जब कि उस फलज्ञानको प्रमितिका कर्म बनाया जाय । कर्म बनानेपर तो फिर तीसरे फलज्ञानकी आकांक्षा होवेगी और वह. तीसरा फलज्ञान भी कर्म होगा। इस प्रकार वहां भी आकांक्षा शान्त न होनेसे कहीं दूर चलकर भी सदा अवस्थान नहीं होगा । अतः अनवस्था हो जायगी।
फलत्वेन फलज्ञाने प्रतीते चेत्समक्षता । करणत्वेन तद्ज्ञाने कर्तृत्वेनात्मनीष्मयता ॥ ५१॥