Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
कर्मत्वेनापरिच्छित्तिरप्रत्यक्षं यदीष्यते । .. ज्ञानं तदा परो न स्यादध्यक्षस्तत एव ते ॥ ४६॥.....
- प्रमितिके कर्मपनेसे ज्ञानपदार्थकी परिच्छित्ति न होना यदि उस ज्ञानका अप्रत्यक्ष माना जाता है तब तो इस ही कारण तुम्हारे मतमें कर्मपनेसे भिन्न कर्ता आत्माका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होसकेगा। किन्तु कुमारिलभट्टने आत्माका प्रयक्ष माना है और गुरु कहे जानेवाले पंडित प्रभाकरने फल ज्ञानका प्रत्यक्ष होना माना है। किन्तु ये दोनों ही कर्ता और फल हैं। प्रतिभास क्रियाके कर्म तो नहीं हैं, इतना बडा पूर्व-अपरका विरोध भला कहां निभ सकेगा ? छोटी बातकी तो पोल कुछ चल भी जाय।
यदि पुनरात्मा कर्तृत्वेनेव कर्मत्वेनापि प्रतिभासतां विरोधाभावादेव । ततः प्रत्यक्षमस्तु अर्थो अनंशत्वान्न ज्ञान कारणं कर्म च विरोधादित्याकूतं, तत एवात्मा कर्ता कर्मच माभूदित्यप्रत्यक्ष एवं स्यात् ।।
- यदि मीमांसकोंका फिर इस प्रकार चेष्टित होय कि कर्तापनके समान कर्मपनेसे भी आत्माका प्रतिभास होजाओ कोई विरोध नहीं है, इस कारण वह आत्मा प्रत्यक्ष अर्थ होजाओ, किन्तु ज्ञान तो निरंश पदार्थ है, अतः विरोध होनेके कारण वह कारण और कर्म दोनों नहीं हो सकता है । जो अर्थ कर्म है वह करण नहीं है और जो ज्ञान करण है वह कर्म नहीं हो सकता है, मीमांसकोंकी ऐसी चेष्टा होनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही विरोध हो जाने के कारण आत्मा भी कर्ता और कर्म न होवे, निरंश आत्मामें कर्त्तापन और कर्मपन दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते हैं । इस कारण भट्टोंके यहां आत्माका भी प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकेगा । आत्मा प्रत्यक्ष ही रहा, जो कि इष्ट नहीं है।
तथास्त्विति मतं ध्वस्तपायं न पुनरस्य ते ।
स्वविज्ञानं ततोध्यक्षमात्मवदवतिष्ठते ॥४७॥ __ प्रभाकर मीमांसक आत्माका प्रत्यक्ष न होना इष्ट करते हैं । अतः प्रसन्नतापूर्वक वे कहते हैं कि आत्मा तिस प्रकार अप्रत्यक्ष ही बना रहो । हमको लाम ही है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह मत भी प्रायः करके पूर्वप्रकरणोंमें खण्डित कर दिया है। यहां फिर इसका निरास नहीं किया जता है । तिस कारण आत्माके समान उस आत्माका विज्ञान भी प्रत्यक्षरूप अवस्थित हो रहा है । सभी ज्ञान स्वको जाननेमें प्रत्यक्षरूप हैं। __अप्रत्यक्षः पुरुष इति मतं प्रायेणोपयोगात्मकात्मप्रकरणे निरस्तमिति नेह पुनर्निरस्यते । ततः प्रत्यक्ष एवं कथंचिदात्माभ्युपगंतव्यः । तद्विज्ञानं प्रत्यक्षमिति व्यवस्थाश्रेयसी प्रतीत्यनतिकमात्. ।