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श्रागे चल कर मुनिश्री ने एक पुस्तक “कदुपाशाह को पढावली का सार" नामक जिखकर प्ररतुन पुस्तक के साथ लगादी है जो कि लौकाशाह के साथ सम्बन्ध रखने वाली है। उस में बतलाया है कि लौंकाशाह के समय में ही एक कडुपाशाह ने भी अपने नाम पर नया मत निकाला था किंतु लोकाशाह की तरह उसने सब क्रियाओं का निषेध नहीं किया था वह मूर्तिपूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण पोषध आदि सबको मानता था सिर्फ साधुओं से द्वेष के कारण उसने साधु संस्था का अस्वीकार किया था। वह लौकाशाह को तो जैनशासन का द्वेषी व जैनधर्म का मंजकही समझता था। उसने अपने मत के बहुत से नियम बनाये जिसमें एक नियम यह भी था कि लोकामत के अनुयायीयों के घर का अन्नजल नहीं लेना। यह बात उस समय के ग्रन्थ बतला रहे हैं । कि उस समय लौकाशाह को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते थे। इससे साफ सिद्ध होता है कि कडुवाशाह की पहावली का सार भी लौकाशाह के जीवन पर ठीक-ठीक प्रकाश डाल रहा है।
इस प्रकार लौकाशाह के साथ सम्बन्ध रखने वाली प्रस्तुत तीनों किताबों में लेखक मुनिश्री ने ऐतिहासिक प्रमाण अच्छे रूप में दिये हैं जिस से पढ़ने वालों की रुचि अधिक बढ़ती रहेगी । इतना हो क्यों पर लेखक महोदय ने तो श्रीमान् लौकाशाह के साथ २ तीन परिशिष्ट को भी मुद्रित करवा दिये हैं। प्रथम परिशिष्ट में मुनि वी का (वि० सं० १५२७) पं. लवण्य समय (वि. सं. १५१५ से १५४३ ) । उपा० कमलसंयम (वि. सं. १५४४ ) इन तीनों के ग्रन्थ जो लौका
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