Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. १६३५-१६७२
मनः अनुशास्तिस्वरूपम्
मित
|तं पुण गिहे व रन्ने य, होइ कज्जं पि साहइ ससज्झं । उज्झिय सेसवियप्पं, चित्त! विचिन्तेसु ता नाणं ॥३५॥ संसारुत्थपयत्था परं सुरम्मा वि न हु हरंति तुमं । जइ मण चिट्ठसि सन्नाण-पवरपागारपरिखित्तं ॥३६॥ जड़ सन्नाणतरंडं अक्खण्डं छड्डसे न कइया वि । हे हियय! हीरसि न ता, अविवेयसरिप्पयाहेण ॥३॥ जीवे सुपत्तभूए, चिटुंतिं मोहतन्तुमययहि । नेहं च निट्ठवितो, मिच्छत्ततमोविणासी य
રેલી कालुस्सकज्जलं उव्य-मन्तओ जइ गिहस्स व तुहंडतो । सन्नाणपईयो जलइ, चित्त! ता किं न पज्जत्तं ॥३९॥ | गुरुगिरितडसंभूयं, विसयविरागमज्झमुद्धरक्रोधं । धम्मऽत्थिसउणरुद्धं च, परमतत्तोयएसतरूं
॥४०॥ होऊणमडणुत्तालं, सणियं चित्त! जड़ समारुहिउं । गिन्हसि सन्नाणफलं, ता आसाएसि मुत्तिरसं ॥४१॥ | रोगाण व कम्माणं, विज्जासिद्धो व्य वियरइ सुगुरु । बज्झोययारविमुहं, पसमणपरमोवएसं जं ॥४२॥ |तं झायसु चित्त! न केव-लं जओ अहिगयखओ चेव । सयलकिलेसविमुक्कं जायइ अजरामरतं पि ॥४३॥ हे चित्त! पयत्तेणं, चिन्तसु तत्तं तुम तयं किंचि । चिन्तियमेतेणं चिय, चिरं पि जेणासि सुनियुत्तं ॥४४॥ धीमं विऊ सुरुयो, चाई सूरोऽहमेव इच्चाई । दप्पजरो ता तुह मण!, जा न निलीयसि परे तत्ते ॥४५॥ अविवेयमिंठमुल्लुंठिऊण, थंभं पि भंजिय दढं पि । पुत्तकलत्ताइसिणेह-निबिडनिगडाई तोडेउं ॥४६॥ रागाऽऽइबन्धणदुमे वि, दूरमुम्मूलिऊण धम्मयणे । हे चित्त! चरसु हत्थी व, जं परं निव्युइं लहसि ॥४७॥ सक्खं जिणिन्दभणियं, इमं ति एयं च गणहरेण पुणो । तस्सीसेण य एयं, चोद्दसदसपुविणा य इमं ॥४८॥ पत्तेयबुद्धपमुहेहिं, भासियं पुयजिणवरेहि इमं । भणियं इच्चाई पर-पच्चायणवयणचिन्तणओ ॥४९॥ हे चित्त! खिज्जसि च्चिय, सयं रसाउणुभवसुन्नमेव तुमं । दव्यि व्य दिव्यभोयण-बहुविहरसपयडणपरा वि ॥५०॥ अहवा यासिज्जइ भिज्जड़ य, दव्यी रसेहिं न उण तुमं । जिणवयणमडणुसरंतं पि, मूढ! हे हियय! कहमिहरा॥५१॥ वररिसिसुहासियाई अणेगसो पढसि सुणसि तह निच्चं । भावेसि य अइनिउणं, तप्परमऽत्थं च बुज्झसि य ॥५२॥ न उण अणुभवसि पसमं, न य संवेगं न यावि निव्वेयं । न मुहत्तमेतमवि तह, तब्भावत्थेण परिणमसि ॥५३॥ जिणवयणसमरसाऽऽपत्ति-मन्तरेणं तु बज्झचरणे वि । सुविसुद्धसाहुकिरिया-सेयणरूवे जहाथामं ॥५४॥ उच्छहसि वि न मण! तुमं, पमायमयघुम्मिरं मणागं पि । एवं च लद्धपोयं पि, मूढ! बुड्डसि भयोहऽन्तो ॥५५॥ अहव न जिणवयणत्थेण केवलं न परिणमसि चेव तुमं । साभिप्पायविसरिसं, किंतु तयं उव्यवत्थिसि वि ॥५६॥ नियबोहवाहगेणं, हे हियय! कहिं पि जिणमएणाऽपि । मउलाविज्जसि बाढं, मूढ! तुमं सव्यहा वि जओ ॥५॥ कड़यवि रुहसि नहग्गे एगंतुस्सग्गतरलियं संतं । कइयवि विससि रसायल-मज्यवाए च्विय निलीणं तु ॥५८॥ उस्सग्गदिट्ठिणो तुह, अववायठिया न चेव रोयंते । अववायदिट्ठिणो उण, उस्सग्गठिया न रोयन्ति ॥५९॥ तह दव्ववेत्तकालाऽऽइयाण-मऽणुसारओ जहाविसयं । उभयपयसेवगा जे य, ते वि नो तुज्झ रोयन्ति ॥६०॥ एवं मण! निच्छयनय-ठियस्स ववहारनयठिया तुज्झ । ववहारनयठियस्स उ, रोयन्ति न निच्छयनयत्था ॥१॥ तह दव्यखेतकालाइयाण-मडणुसारओ जहाविसयं । उभयनयमयठिया जे उ, ते वि णो तुज्झ रोयन्ति ॥१२॥ उस्सग्गपमुहसमत्थ-नयमयं मयमरोयमाणस्स! । कह नज्जइ निरवज्जा, मण! जिणमयपरिणई तुज्झ ॥३॥ तव्विसए सुयनिहिणो, नो बहु पुच्छसि वि किर मए ततं । नायं ति किं पि अंसं, निरुवसमं चित्त! घेत्तूण॥६४॥ एवं च तुज्झ न गिलाण-कज्जविसया वि जायए चिन्ता । कालाऽणुरूवगुणिगोय-रं च न पमोयकरणं पि ॥६५॥ वच्छल्लथिरीकरणोव-यूहणाइ वि न चेव सव्वत्थ । अविगाणेणं चिन्तसि, साहिप्पाया जइ कहं पि ॥६६॥ एवंविहं च कुग्गह-चक्कं छेत्तुं विवेयचक्केण । सब्बोयाहिविसुद्धं, सद्धम्मे कुणसु पडिबन्धं
॥६॥ जड़ तुममिह पडिबन्धं, हुतं थेपि ता न इयकालं । होज्ज महदुक्खजालं, किं न सुयमिमं तए चित्त! ॥६८॥ एगदिवसं पि जीवो पव्वज्जमुवागओ अन्नन्नमणो । जड़ वि न पावइ मोक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ ॥६९॥ अहवेगदिवसमिच्चाइ-थूलं माणं जओ मुहुत्ते वि । सन्नाणपरिणईए उ, फलमिटुं होइ जमिहुतं ॥७॥ जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गत्तो. खवेड ऊसासमेत्तेण
॥७१॥ कहमिहरा मदेवी, पुव्यं अगुणा वि तखणा चेव । सिद्धा तुमं तु हे मण!, सुनाणपरिणइगुणविहीण! ॥७२॥
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