Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 254
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८१४६-८१८३ अभ्यन्तरबाह्य-ग्रन्थयाः स्वरूपं महाव्रतस्य भावनास्वरूपम् ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ बाहिरगंथं खेत्तं वत्थं धणधन्नकुप्परुप्पाणि । दुपयचउप्पयमऽपयं, सयणाऽऽसणमाऽऽड़ जाणाहि जह कुंडओ न सक्का, सोहेउं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स न सक्का, कम्ममलं संगसहियस्स जड़या रागा दोसा, गारवसन्नाउ तह उदयमेति । तइया गंथं घेतुं, लुद्धो बुद्धिं कुणइ तत्तो तस्स निमित्तं मारइ, भणेड़ अलियं करेड़ चोरिक्कं । सेवइ मेहुणमडत्थं च अपरिमाणं कुणइ जीयो ॥५२॥ | सन्नागारवपेसुण्ण - कलहफरुसाणि भंडणविवाया । के के न होंति अच्चत्थ-मत्थवामोहमूढस्स गंथो भयं नराणं, सहोयरा एलगच्छया जं ते । अन्नोऽन्नं मारेउ, अत्थनिमित्तं मइमऽकासी अत्थनिमित्तमऽइभयं, जायं चोराणमेक्कमेक्केहिं । मज्जे मंसे य विसं, संजोइय मारिया जं ते संगो महाभयं जं, विहेडिओ सावएण संतेण । पुत्तेण हिए अत्थम्मि, मुणियई कुंचिएणाऽवि अत्थनिमित्तं सीयं, उण्हं तण्हं छुहं च वासं च । दुस्सेज्जं दुब्भतं च, सहड़ वहई य गुरुभारं गायइ नच्चड़ धावड़, कंपड़ विलवेइ मलइ असुइंपि । नीयं च कुण्ड़ कम्मं, कुलम्मि जाओ वि गंथत्थी ॥५८॥ एवं चिट्ठतस्स वि, संसइओ होइ अत्थलाभो से । न य संचीयड़ अत्थो, सुचिरेण वि मंदभग्गस्स ॥५९॥ जड़ पुण कहिंचि संचय - मुवेड़ अत्थो तहाऽवि से नत्थि । तित्ती पउरऽत्थेण वि, लाभे लोभो पवड्ढइ जं ॥ ६०॥ जह इंधणेण अग्गी, न तिप्पड़ जलनिही जलनईहिं । तह जीवस्स न तित्ती, अत्थि तिलोए वि लद्धम्मि ॥ ६१ ॥ आहम्मइ मारिज्जइ, रुब्भइ भिज्जइ य निरवराहो वि । धणवं आमिसहत्थो, तत्थो पक्खीहिं जह पक्खी ॥ ६२ ॥ मायापिइपुत्तेसु वि, दारेसु वि नेय जाय वीसंभं । गंथनिमित्तं जग्गड़, रक्खंतो सव्वरतिं पि | अंतोहुत्तं डज्झइ, पुरिसो नट्टे सयम्मि अत्थम्मि । उम्मतो इव विलवइ, परिदेवइ कुणइ उक्कंठं | गंथस्स गहणरक्खण - सारवणाई सयं करेमाणो । वक्खित्तमणो झाणं, उवेइ कह मुक्कमज्जाओ किंच કો ॥६४॥ ॥६५॥ गंथेसु गढियहियओ, होइ दरिद्दो भवेसु बहुए । गंथनिमित्तं कम्मं, किलिट्ठहियओ समाइयइ एएहिं दोसेहिं, मुच्चइ मुंचंतओ मुणी अत्थं । परमऽब्भुदयपहाणं, पावेइ गुणाण पब्भारं सप्पबहुले अरण्णे, अमंतविज्जोसहो जहा पुरिसो । पावड़ अणत्थमत्थं, धरंतओ तह मुणी वि परं रागो होइ मणुण्णे, गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चारण पुणो, रागद्दोसा दुवे चत्ता | सीउण्हदंसमसगाऽऽइयाण, दिन्नो परीसहाण उरो । तव्विणिवारणहेउं, अत्थं दूरे चयंतेण निस्संगो चेव सया, कसायसंलेहणं कुणइ साहू । संगो कसायहेऊ, अग्गिस्स व होंति कट्ठाणि सव्वत्थ होड़ लहुओ, रूवं वेसासियं भवड़ तस्स । गरुओ य संगसतो, संकिज्जइ चेव सव्वत्थ तम्हा सव्ये संगे, अणागए बट्टमाणएडतीए । परिहरसु तुमं सुविहिय!, कयकारियअणुमईहिं सया इय चत्तसव्यसंगो, सीईभूओ पसंतचित्तो य । जीवंतो च्चिय पावड़, साहू निव्वाणसुहमऽणहं सार्हेति जं महडत्थं, आयरियाई च जं महल्लेहिं । जं च महल्लाई तओ, महव्वयाइं ति भण्णंति एसिं च रक्खणट्ठा, करेसु सइ रयणिभोयणनिवित्तिं । पत्तेयं भावेज्जसु, सम्मं तब्भावणाओ य " महाव्रतस्य भावना स्वरूपम्" जुगमित्तनिमियनयणं, अखलियलक्खं पए पए 2 अदुयं । जायइ जयं चरंतस्स, पढमवयभावणा पढमा आराहिएसणस्स वि, अवलोयणपुव्ययं असणपाणे । जायइ जयं कुणंतस्स, पढमवयभावणा बीया सपमज्जसपडिलेहं, भंडुवगरणस्स गहणनिक्खेयं । जायइ जयं कुणंतस्स, पढमवयभावणा तइया असुहविसयं निरुंभिय, सम्मं सुहविसयमाऽऽगमविहीए । जायइ मणं कुणंतस्स, पढमवयभावणा तुरिया ॥८०॥ रुद्रपसरं अकज्जे, कज्जे वि हु सुयविहीए निउणवई । निसिरंते पढमवयस्स, भावणा पंचमी होइ भणियक्कमविवरीयं, चिट्ठतो पुण विहिंसए जीवे । पढमवयदढत्तकए, भावणपणगे जएज्ज तओ हासं विणा वयंतस्स, बीयवयभावणा भवे पढमा । अणुवी भासिणो पुण, बीयव्ययभावणा बीया 1. गढिय = आसक्त। 2. अदुयं = अद्रुतम्। तत्थ - ॥७७॥ ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८१॥ ॥८२॥ ૫૮૫ 229 ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥

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