Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ८८३८-८८७४
सुवर्णस्याष्टगुणैः धर्मगुरुः परीक्षा-सद्गुरोःस्वरूपम् | किंचजाहे य पावियव्वं, इहपरलोए य होइ कल्लाणं । ताहे च्चिय जिणभणियं, पडियज्जइ भावओ धम्मं ॥३८॥ जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ बेरग्गं । तह तह विन्नायव्यं, आसण्णो बोहिलाभो ति ॥३९॥ दुग्गे भवकतारे, भममाणेहिं सुइरं पि नटेहिं । इट्ठो जिणोवट्ठो, सोग्गइमग्गो दढं दुलहो। ૪૦થી पत्ते वि हु मणुयत्ते, मोहस्सुदएण दुल्लहो सुपहो । कुपहबहुयत्तणेण य, विसयसुहाणं च लोभेण ॥४१॥ बहुमोल्लरयणनिहिलाभ-सन्निहं पाविऊण तं तम्हा । मा तुच्छसुहाण कए, एमेव य निष्फलं नेसु ॥४२॥ लद्धाए दुल्लहाए वि, कहवि बोहीए एत्थ संसारे । दुल्लहो धम्माऽऽयरिओ, पयडं चिय जेण पेच्छ इमं ॥४३॥ रयणत्थिणो य थोवा, तद्दायारो य जह य लोगम्मि । इय सुद्धधम्मरयण त्थि-दायगा दढयरं नेया ॥४४॥ एत्थ य 'सत्थुत्तकसाऽऽइ-सुद्धधम्मस्स दायगा गुरुणो । साहुतणे जहत्ते, ते पुण पावेंति सुगुरुतं ॥४५॥ |एतो च्चिय णिद्दिट्ठो, विसिट्ठदिट्ठीहिं भावसाहु त्ति । हंदि पमाणठियत्थो, तं च पमाणं इमं होई ॥४६॥ सत्थुत्तगुणो साहू, न सेस इइ णे पइन्न इह हेऊ । अगुणता इति नेओ, दिटुंतो पुण सुवण्णं व ॥४७॥
“सुवर्णस्याष्टगुणैः धर्मगुरुः परीक्षा-सद्गुरोःस्वपम्" - विसघाइ रसायण मंगलत्थ-विणिए पयाहिणाऽऽवते । गरुए अडज्झकच्छे, अट्ट सुवन्ने गणा हों इय मोहविर्स घायइ, सियोवएसा रसायणं होइ । गुणओ य मंगलत्थं, कुणइ विणीओ य जोगो ति ॥४९॥ मग्गाऽणुसारिपयाहिण-गंभीरो गरुयओ तहा होइ । कोहऽग्गिणा अडज्झो, अकुच्छ सइ सीलभावेणं ॥५०॥ एवं दिट्ठन्तगुणा, सज्झम्मि वि एत्थ होंति नायव्वा । न हि साहम्माऽभावे, पायं जं होइ दिद्रुतो ॥५१॥ चउकारणपरिसुद्धं, कसछेयत्तावतालणाए य । जं तं विसघाइरसा-यणाऽऽइगुणसंजुयं होड़
॥५२॥ इयरम्मि कसाऽऽईया, विसिट्ठलेसा तहेगसारत्तं । अवगारिणि अणुकंपा, बसणे अइनिच्चलं चित्तं ॥५३॥ तं कसिणगुणोयेयं, होइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती । न वि नामरूवमेत्तेण, एवमडगुणो भवइ साहू जुत्तीसुवन्नगं पुण, सुवन्नवन्नं पि जइ वि कीरेज्जा । न हु होइ तं सुवण्णं, सेसेहिं गुणेहिं असंतेहिं ॥५५॥ जे इह सत्थे भणिया, साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । यन्नेणं जच्चसुवन्न-गं व संते गुणनिहिम्मि ॥५६॥ जो साहुगुणरहिओ, भिक्खं हिंडइ न होइ सो साहू । वन्नेणं जुत्तिसुवन्न-गं वसंते गुणनिहिम्मि ॥५॥ उद्दिट्टकडं भुंजड़, छक्कायपमद्दणो घरं कुणइ । पच्चक्खं च जलगए, जो पियइ कहं नु सो साहू ॥५८॥ अन्ने उ कसाऽऽईया, किल एए एत्थ होति नायव्वा । एयाहि परिक्खाहिं, साहपरिक्खेह कायव्या तम्हा जे इह सत्थे, साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । अच्चन्तसुपरिसुद्धेहिं, मोक्खसिद्धिति काऊणं ॥६०॥ इय मोक्खसाहगगुणाण, साहणा देसिओ य जो साहू । धम्मोवएसगिरणा, सो चेव गुरू वि ता एतो ॥६१॥ नीसेससाहुगुणरयणा-लंकियतणुस्स वि गुरुस्स । सविसेसमडसेसजणं, विबोहिउं भण्णइ परिक्खा ॥२॥ सा पुण परलोयपरंमुहस्स, इहलोगबद्धबुद्धिस्स । सद्धम्मवासणाविर-हियस्स विसओ न होइ तहा ॥३॥
वि य, जणणीजणए वि देवयभए । दपरिच्चए चइत्ता, निस्सीकाऊण कं पि नरं ॥४॥ सुयविमुहो गड्डरिया-पवाहमेत्ताऽणुसारिचरिओ य । धम्मऽत्थी वि सबुद्धीए, कट्ठाउणुट्ठाणविहियरुई ॥६५॥ मग्गं पि चरिउकामो, चरमाणो वा मुणी तहारुयो । तस्स वि न चेव जायइ, विसओ एसा गुरुपरिक्खा ॥६६॥ भावियभवनेगुन्नस्स, जंतुणो जायभवविरागस्स । सद्धम्मपरुवगगुरु-गवेसिणो नणु इमा विसओ ॥६ ॥ ता भवभयभीएणं, भविणा सद्धम्मबद्धलक्खेणं । धणवं व दरिदेणं, तरंडमिव जलहिपडिएण
૬૮ળા इह परमपयपुरप्पह-पयट्टपाणीण परमसत्थाहो । सन्नाणाऽऽइगुणगुरु, परिक्खियव्यो गुरु णिउणं ॥६९॥ | तुच्छप्फलो वि एक्को वि, रुवगो जड़ परिक्खिउं गज्झो । परमफलओ गुरू ता, परिक्खियव्यो पयत्तेणं ॥७॥ करितुरयाऽऽइ जह जए, सुगुणं ति मुणिज्जए सुचिंथेहिं । तह सुहगुरू वि नेओ, धम्मुज्जमणाऽऽइलक्खणओ॥७१॥ धम्मडत्थकाममोक्खा, चत्तारि भवंति एत्थ पुरिसत्था । ते सुहगुरुवएसा, लभंति विणा किलेसेणं ॥७२॥ इह जोगिणो कयत्था, विसिट्ठनाणाऽवलोइयपयत्था । दक्खा सायाऽणुग्गह-करणे गुरुसंगमा होति ॥७३॥ तिहुयणभवणऽभंतर-पसरंतऽन्नाणतिमिरभरहरणे । सज्जोइदित्तरुयो, पावपयंगक्खए दक्खो
૭૪ 1. शास्त्रोक्तकषादिशुद्धधर्मस्य ।
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