Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५२७३-५३१०
तृतीयसंस्तारकद्वारम्
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न य संघट्टो बीयाण, सालिपमुहाण नेव हरियाणं । नोवद्दवणं पि पिपीलि-याऽऽइयाणं तसजियागं ॥७३॥ अमणुन्नदव्यगंधा -ऽऽइणो य असमाहिकारिणो न जहिं । तत्थ घसभिलुगरहिए, हियए खवगस्स पयईए ॥ ७४॥ पुढवीसिलामओ वा, फलहमओ तणमओ य संथारो । कीरइ समाहिहेउं उत्तरसिर अहव पुव्यमुहो ॥७५॥ तत्थ य फायदेसे, समे अझुसिरे य भूमिसंथारो । अप्फुडियअसंसत्तो, समपट्ठिसिलामओ होइ ॥७६॥ निच्छिड्डगनिक्कंपो, लहुओ एगंडगिओ य फलहमओ । निस्संधी 2 अप्पोल्लो, तणसंथारो भवति मउओ ॥७७॥ एसो पुण संथारो, उभओकालपडिलेहणासुद्धो । जुत्तपमाणविरइओ, आरुहियव्यो तिगुत्तेण निस्संगयाए लिंगं, भणिया एए वि दव्वसंथारा । मुणिणो भावसमाहीए, कारणत्तेण अह तत्थ संलीणयाठियऽप्पो, संवेगगुणऽन्निओ य तक्कालं । संथारम्मि निसन्नो, विहरड़ संलेहओ धीरो अह दढकढिणत्तणओ, तणसंथाराऽऽइएसु खवगस्स । चिट्ठिउमऽपारयंतस्स, होज्ज जड़ कह वि असमाही ॥ ८१ ॥ ता तत्थ पत्थरिज्जंति, एगदुगमाऽऽइया वि से [कथा] कप्पा । अववाएणं ता जा, पावारगतूलिमाऽऽई वि॥ ८२ ॥ एवमऽणेगपयारो, युत्तो दव्यं पडुच्च संथारो । तं चिय अणेगभेयं, जाणसु भावं पुण पडुच्च रागं दोसं मोहं, कसायजालं च दूरमुज्झितो । संपत्तपरमपसमो, आय च्चिय होइ संथारो सावज्जजोगविरओ, संजमसारो तिगुत्तिगुत्तो य । समियऽप्पा भावजई, आय च्चिय होइ संथारो | निम्ममनिरऽहंकारो, समतणमणिलेट्ठकंचणो धणियं । मुणियपरमऽत्थसारो, आय च्चिय होइ संथारो जस्स परे सयणे वा, मिते सत्तुम्मि अप्पपरविसए । परमसमया हु सो च्चिय, आया संथारओ नेओ ॥८७॥ जस्स पियविप्पियपरे, परे समुक्करिसमऽहव अवकरिसं । न मणो मणयं पि हु भयइ, तस्स आया हु संथारो ॥८८॥ दव्ये खेते काले, भावे पडिबंधवज्जणुज्जुत्तो । सत्तेसु मेत्तिसारो, आय च्चिय होइ संथारो | सम्मत्तनाणचारित - लक्खणा मोक्खसाहगगुणा जे । एत्थे खु संथरिज्जंति, तेण आया हु संथारो अनिरुद्धाऽऽसवदारो, अप्पाणं न य धरेइ सारम्मि । आरुहइ य संथारं, अविसुद्धो तस्स संथारो जो गारयेहिं मत्तो, नेच्छइ आलोयणं गुरुसगासे । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो जो पुण पत्तब्भूओ, करेड़ आलोयणं गुरुसगासे । आरुहइ य संथारं, अविसुद्धो तस्स संथारो सव्यविगहाविमुक्को, सत्तभयट्ठाणविरहिओ धीमं । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो नवबंभचेरगुत्तो, जुत्तो जो दसविहे समणधम्मे । आरुहइ य संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो अट्ठमयट्ठाणविसंठुलस्स, निद्वंधसस्स लुद्धस्स । उवसमविउत्तचित्तस्स काहिइ किमिह संथारो रागी दोसी मोही, कोही माणी य मायवं लोभी । जो सो संथारत्थो वि, नेय संथारफलभागी अनिरुद्धजोगपसरो, सव्वंऽगं जो असंवुडऽप्पा य । परमत्थसाररहिओ, कह सो संथारफलभागी जड़ ता गुणरहिओ वि हु, संथारत्थो समीहए मोक्खं । तो पहियदमगसेवग -जणाण पढमं हवउ मोक्खो ॥९९॥ बज्झं तरगुणहीणो, बज्झं तरदोसदूसियऽप्पा य । संथारत्थो न वि थेव - मऽवि फलं लहइ स वराओ ॥ ५३०० ॥ बज्झंडतरगुणकलिओ, बज्झंडतरदोसदूखत्ती य । संथारगऽणुवविट्ठो वि, इट्ठफलभायणं होड़ गारवतिगेण रहिओ, तिदंडपरिमोडणे पहियकिती । जो य निराऽऽसंसमणो, सफलो खलु तस्स संथारो ॥२॥ छक्कायरक्खणऽट्ठा, निविट्ठचेट्ठो पणट्ठअट्ठमओ । विसयसुहनिप्पिवासो, जो सो संथारफलभागी समणो समाहियमणो संजमतयनियम जोगजुत्तमणो । सपरकसायपसमणो, जो सो संथार फल - भागी सुविहियगुणवित्थारं, संथारं जे लहंति सप्पुरिसा । तेहिं जियलोगसारं रयणाऽऽहरणं कयं होइ सव्वंसहत्तसन्नाह-विहियसव्वंऽगरक्खणो खिप्पं । सम्मन्नाणाऽऽइगुणो, मोहमहापरणवमालो
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| अइयारमलविवज्जिय- पंचमहव्ययगइंदमाऽऽरूढो । पत्थुयसंथाररणंऽ - गणाऽऽयलीलिलसमाणो य | उवसग्गपरीसहुसुहड - उब्भडं पबलकम्मरिउसेण्णं । निज्जिणिऊणं गेहड़, वीरो आराहणपडागं सम्मत्तभूमिगाए, विसुद्धसद्धम्मगुणतणेसुं च । पसमफलगे व सुविसुज्झ - माणलेसासिलाए वा संथारइ अप्पाणं, काउं संलेहणं परं आया । जम्हा तिगुत्तिगुत्तो, ता सो च्चिय होइ संथारो
1. हितदे । 2. अप्पोलो = शुषिररहितः । 3. आय = आत्मा ।
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