Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 173
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५२३५-५२७२ पुंनागनागसीवन्नि - सत्तवन्नप्पमुक्खरुक्खगणा । रेहंति जत्थ मंसल મા ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ ॥५०॥ परिमलकुसुमेहिं संछन्ना तत्थ य दीहरवडविडवि - कोडरे सुड़गा सुगे दोण्णि । अविणट्ठलट्ठदेहे, समुचियसमयम्मि उ पसूया | पक्खाऽनिलपइदिणचूण्णि-दाणओ वड्ढिया य ते तीए । थेयोवलद्धनहगम - सामत्था अवरदियहम्मि चावल्लयाए तत्तो, उड्डित्ता जाव गंतुमाऽऽरद्धा । दुब्बलपक्खत्तणओ, ता पडिया अद्धमग्गम्मि तद्देसमाऽऽगएहिं, अह एगो तेसि तायसेहिं सह । नीओ आवासम्मि, इयरो भिल्लेहिं पल्लीए 'हण छिंद भिंद मंसं, अससु लहुं लोहियं पिब इमस्स' । इच्चाऽऽइदुट्ठवयणाई, भिल्लपल्लीठिओ कीरो ॥ ४० ॥ | पइखणमऽविरामं चिय, सुणमाणो तम्मणो दढं जाओ । इयरो य तावसाणं, करुणारसियंऽतकरणाण ॥४१॥ ' मा मा मारह जीवे, कुणह दयं पंथियाऽऽइणो दुहिए । अणुकंपह' इच्चाऽऽइ-वयणेहिं भाविओ बाढं ॥४२॥ एवं बच्चंतम्मि, काले एगम्मि अवसरे राया । नामेण कणगकेऊ, वसंतपुरनयरवत्थव्वो विवरीयसिक्खतुरगेण, सिग्घवेगेण अवहडो इंतो । भिल्लसुएणं तरुसिहर - संठिएणं कहवि दिट्ठो अह पावभावणाभाविएण, तेणं पयंपियं रे रे । भिल्ला ! धावह गेण्हह, सिग्घमिमं नरवई जंतं एयस्स दिव्यमणिकणग- रयणाऽलंकारमऽवहरह तुरियं । इहरा पेच्छंताण वि, तुम्हाण पलायणे लग्गो' | देसम्मि जत्थ विहगा वि, एरिसा दूरओ स मोतव्यो । इइ चिन्तिऊण राया सिग्घं तत्तो अवक्कतो पत्तो य तावसाऽऽसम - समीवदेसम्मि कहवि तुडिजोगा । इयरसुगेणं दट्ठूण, महुरवाणीए तो भणियं हंहो तायसमुणिणो !, तुरंगहरिओ नराऽहिवो एसो । एइ चउराऽऽसमगुरू, ता कुणह इमस्स पडिवतिं ॥४९॥ |तव्ययणेण य सव्वाSS - यरेण निययाऽऽसमम्मि नरनाहो । नेऊण तावसेहिं, उवयरिओ भोयणाऽऽईहिं अह वीसत्थसरीरो, विम्हइयमणो निवो सुगं भणइ । तुल्लम्मि वि तिरियत्ते, विसरिससीलत्तणं किं भे ॥५१॥ जेणं सं भिल्लपल्ली - सुगो तहा निठुरं पयंपेड़ । तुममऽवि एवं मंजुल - गिराए उल्लवसि हियमेव ॥५२॥ ताहे सुगेण सिद्धं, एगा जणणी पिया वि एक्को य । मम तस्स य नवरं सो, नीओ पल्लीए भिल्लेहिं ॥५३॥ अहमऽवि मुणीहिं नियनिय - संसग्गसमुब्भया य गुणदोसा । संजाया अम्हाणं, पयडं तुमए वि दिट्ठमिमं ॥ ५४ ॥ एवं जड़ तिरियाण वि, संसग्गिवसेण दोसगुणसिद्धी । लोयम्मि वि सुपसिद्धा, ता न कहं तवेण किसियस्स ॥५५ ॥ दुरऽणुचरमुत्तिमट्ठ, पसाहिउं उज्जयस्स खवगस्स । दुट्ठजणपाडिवेसेण, होज्ज सज्झाणविग्घाऽऽई सुट्टु विसमी वि सुठु वि, दमी वि सुठु वि पणट्टमाणो वि । किं चोज्जं कलुसिज्जइ, कुसीलजणसन्निहाणेण॥५७॥ कलहो बोलो झंझा, वामोहो संकरो ममत्तं च । झाणऽज्झयणविघाओ, नऽत्थि विवित्ताए बसहीए तम्हा मणखोहकरो, पंचिंदियगोयरो जहिं णत्थि । चिट्ठउ तत्थ तिगुत्तो, खवगो सुहझाणसंजुत्तो उग्गमउप्पायणएसणाहिं सुद्धाए अपरिकम्माए । वसईइ असंसत्ताए, निप्पाहुडियाए सेज्जाए घणकुड्डे सकवाडे, गामबहिं बालवुड्ढगणजोगे । उज्जाणघरे ठायड़, सेलगुहाए य सुन्नघरे दो तिन्नि य वसहीओ, लेज्जा सुहनिग्गमप्पवेसाओ । कडचिलिमिणिजुत्ताओ, धम्मकहामंडवजुयाओ एगत्थ ठवे खवगं गच्छट्ठियसाहुणो य अन्नत्थ । मा होज्ज भोयणरुई, खवगस्साऽऽहारगंधेण पाणाऽऽईणि वि तहियं, ठवेज्ज जम्मि निएज्ज नो खवगो । न य अपरिणया मुणिणो, कम्हा नणु भन्नइ निमित्तं ॥ ६४ ॥ असमाहियस्स खवगस्स कहवि मा पेच्छिऊण दिज्जंतं । असणाऽऽई मुद्धाणं, तदुवरि अप्पच्चओ होज्जा ॥ ६५ ॥ | चिरभवपरंपरापरि-चियत्तणेणाऽवि कहवि मा गिद्धी । पाउब्भवेज्ज सहसा, खवगस्स महाणुभावस्स आराहणामहोयहि-तडपत्तस्साऽवि खयगपोयस्स । आवडइ कहवि विग्घो वि, जेण तेणेस जतो त्ति इय धम्मसत्थमत्थयमणीए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर - कुसुमिययणराइतुल्लाए आराहणाए पडिदार - नवगमइए ममत्तयोच्छेए । तइए दारे बीयं भणियं सेज्ज त्ति पडिदारं ॥५६॥ દશા ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ तृतीयसंस्तारकद्वारम् ॥३५॥ ॥३६॥ 'तृतीयसंस्तारकद्वारम् ' सेज्जाए जहुत्ताए वि, होज्ज संथारगं विणा न रई । आराहगस्स तम्हा, तद्दारमियाणि कित्तेमि पुव्यं पवंचियाए, सेज्जाए जत्थ किर पएसम्मि । मूसगरयउक्केरस्स, नत्थि थेवं पि उद्दवणं ऊसतुसाराऽऽईणं, न विणासो न य पईवविज्जूणं । न य पबलप्पवणाणं, पाईणपडीणपभिईणं ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६१॥ ॥६२॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ 148

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