Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 197
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६०६३-६१२७ अर्हमित्रस्य दृष्टान्तः - द्वेषस्वरूपम् - धर्मरूचिदृष्टान्तः तहाहि “अहमित्रस्य दृष्टान्तः" सिरिखिइपइट्ठियपुरे, अरहन्नयअरिहमित्तनामाणो । अवरोप्परदढपणया, निवसंति भाउणो दोन्नि ॥१३॥ जेट्ठस्स गेहिणीए, तिव्यऽणुरागाए एगसमयम्मि । अभत्थिओ कणिट्ठो, पडिसिद्धा तेण सा बहुसो ॥१४॥ तह वि हु उवसग्गंती, भणिया किं नियसि भाउगं न हु मे । तो तीए भत्तारो, विणासिओ अणत्थसीलाए ॥९५॥ पच्छा भणिओ एवं पि, कीस नो इच्छसि ति तो तेणं । ततो भाइविणासं, विणिच्छिउं गिहविरत्तेण ॥१६॥ गहिया जिणपव्वज्जा, साहहिं समं च विहरिओ बहिया । इयरी अट्टयसट्टा, सुणिगा मरिऊण उप्पन्ना ॥१७॥ गामम्मि जत्थ सुणिगा, सा वट्टइ तत्थ चेव विहरंतो । समणगणेण समेओ, समागओ अरिहमित्तो वि ॥९८॥ तो पुव्यपेमवसगा, सा सुणिगा तस्स न मुयइ समीयं । उवसग्गो ति निसाए, ताहे नट्ठो अरिहमित्तो ॥१९॥ तविओगेण, मरिय अडवीए मक्कडी जाया । सो वि महप्या कहमडवि, तमेव अडविं समजणपत्तो॥६१००॥ दिट्ठो य मक्कडीए, लग्गा कंठम्मि पुव्वपेमेण । मोयाविओ य कहमवि, सेसमुणीहिं पलाणो सो ॥१॥ सा पुण तब्दिरहम्मि, मरिऊणं जखिणी समुप्पन्ना । तच्छिड्डाई विमग्गइ, विहरंतं तं च नीरागं ॥२॥ हसिऊण तरुणसमणा, भणंति धन्नोऽसि अरिहमित्त! तुमं । जं च पिओ सुणियाणं, वयंस! गिरिमक्कडीणं च॥३॥ एवं क्यपरिहासो वि, निक्कसाओ स अवरसमयम्मि । जलपवहम इक्कमिउं, पसारिउं दीहरं जंघं ॥४॥ जा गंतुं आरद्धो, ता गतिभेएण लद्धछिड्डाए । पुव्यपरुट्ठाए ज-विखणीए से ऊरुओ छिन्नो ॥५॥ हा दुटु दुटु मा आउ-कायजीया विराहिया होज्जा । एवं परिभातो, अधिइं जा कुणइ सो झत्ति ॥६॥ ता सम्मदिट्ठिगाए उ, देवयाए पराजिणिता तं । सपएसो से ऊरू, संघडिय पुणन्नयो विहिओ ॥७॥ एवं पेज्जविवक्खे, वस॒तो सो ह सुगतिमडणपत्तो । इयरी य पेज्जनडिया, विडंबणाभायणं जाया ૮ इय भो देवाणुप्पिय! तुमं पि जिणवयणविमलसलिलेण । निव्वावसु पेज्जडग्गिं, समीहियडत्थस्स सिद्धिकए ॥९॥ दसमं पावट्ठाणग-मेवं संखेवओ पवखायं । दोसाऽभिहाणमेतो, एक्कारसमं परिकहेमि ॥१०॥ "द्वेषस्वरूपम्" - अच्वंतकोहमाणु-भयो इहं असुहआयपरिणामो । दोसो भन्नइ जम्हा, दूसिज्जड़ तेण सपरजणो ॥११॥ दोसो अणत्थभवणं, दोसो भयकलहदुक्खभंडारो । दोसो ज्जविणासी, दोसो असमंजसाण निही રા दोसो अनिव्वुइकरो, दोसो पियमित्तदोहकारी य । सपरोभयतावकरो, दोसो दोसो गुणविणासो ॥१३॥ |दोसेण चेव कलिओ, परगुणदोसे विकत्थइ पुरिसो । दोसकलुसियमणो च्चिय, आवहइ ऊणहिययत्तं ॥१४॥ ऊणहिययस्स उ परो, जं जं चेट्टइ उ अप्पगयमेव । अप्पविसयं खु तं तं, मन्नइ मूढो किलिस्सइ य ॥१५॥ धम्मोवएसरुवं, रइठाणं पि हु परेण सीसंतं । महुसंभियपायसमिय, दूसइ पित्तऽद्दिओ व जडो ॥१६॥ |ता जइ रइठाणं पि हु, अरइपयं होइ जस्स दोसेण । ता दोसस्स न जुत्तो, दाउमडणज्जस्स अवयासो ॥१७॥ जे जेत्तिया य पुस्विं, भणिया दोसा हयाऽऽसदोसस्स । ते तेत्तिय च्चिय, गुणा, भयंति सुविसुद्धपसमस्स ॥१८॥ दोसदवाऽनलजोगा, दड्ढे दड्ढं समंडबुवरिसेण । चित्तसमाहाणवणं, नियमेण पुष्पन्नवीहोड़ ॥१९॥ इह दोसपावठाणा, चरणमऽसलं अकासि धम्मरुई । पच्छाऽऽगयसंवेगो, सो च्चिय सुद्धं तयमऽकासि ॥२०॥ तथाहि “धर्मरूचिदृष्टान्तः" गंगामहानईए, नंदो नावाऽहियो बहुं लोगं । मोल्लेणं उत्तारइ, एगम्मि य अवसरे साहू ॥२१॥ बहुलद्धिसंपउत्तो, धम्मरुई नाम गंगमुत्तिन्नो । नावाए मोल्लकए, धरिओ नंदेण नइपुलिणे ૨૨ फिडिया भिक्खावेला, रविक्रसंतत्तयेलुयाए दढं । गिम्हेण य अभिभूओ, तह वि हु तेणं अमुच्वंतो ॥२३॥ रुट्ठो दिट्ठिहुयासेणं, भासरासिं तयं करिता सो । अन्नत्थ गओ इयरो, सभाए घरकोइलो जाओ ॥२४॥ साहू वि विहरमाणो, भत्तं पाणं गहाय गामाओ । भोयणकरणनिमित्तं, तं चेव सभं अणुपविट्ठो ॥२५॥ दळूण तं च दढपुव्व-वेरओ जायतिव्वकोवो सो । भोत्तुं आरद्धस्स उ, मुणिणो उपरि ठिओ संतो ॥२६॥ पाडिउमाउडरद्धो क्यवरं ति, तो उज्झिऊण तं ठाणं । साह अन्नत्थ ठिओ, तत्थ वि सो खिविउमा डढतो॥२७॥ 1. संभिय = संभृत = मिश्रित । 172

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