Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७३३१-७३६४
अगडदत्तस्यदृष्टान्तः - विकथास्वरूपम् ॥३१॥ ॥३२॥
॥३५॥
॥३७॥
॥३९॥
॥४०॥
तं च अपेच्छंतो सो, वणगहणे पेहिउं समाऽऽरद्धो । अभिमुहमिंतो य हओ, खग्गेणं अगलदत्तेणं अह गाढघायवियणा- घुम्मिरदेहेण तेण संलतं । विगयप्पायं हे वच्छ!, जीवियव्यं मह इयाणि ता गिन्हसु मम खग्गं, वच्चसु य मसाणपच्छिमविभागे । तहियं च चंडियाऽऽययण - भित्तिपासम्मि ठाऊणं ॥३३॥ सद्दं करेज्ज जेणं, तब्भूमिहराउ नीइ मम भट्टणी । दंसेज्जसु तीए असिं, जेणं सा भवइ तुह भज्जा ॥३४॥ दंसइ य गेहसारं, एवं वृत्तम्मि अगलदत्तेण । तह चेय कयं ता जाय, भूमिभयणम्मि वि पट्टो दिट्ठा य तत्थ पायाल - कन्नगा विय मणोहरसरीरा । एगा जुवई पुट्ठो, तीए कत्तो तुमं सित्ति आयड्ढिऊण खग्गं, निदंसियं तीए अगलदत्तेण । मुणियं च णाए नियभाउ - मरणमऽह रुंभिउं सोगं संभमभरियऽच्छीए, सुहय! तुहं सागयं ति भणिरीए । उवणीयमाऽऽसणं से, आसीणो सो य साऽऽसंको ॥ ३८ ॥ तीए य पुव्यविरइय - गरुयसिलाजंतसंगया सेज्जा । दिव्योवहाणकलिया, पगुणा सव्वाऽऽयरेण कया भणिओ य अगलदत्तो, वीसमसु खगं इहं महाभाग ! | वीसंतो सो य तहिं, नवरं एवं विचिंतेड़ नूणं न सुंदरमिहाड - वत्थाणं मा भवेज्ज कूडमिमं । ता निद्दं अकुणतो, ठामि इमा वच्चए जाव अह ठाऊण खणं सा, जंतनिवाडणकरण नीहरिया । इयरो वि पएसन्तर - मडल्लीणो उज्झिउं सेज्जं तीए य कीलियं फे- डिऊण सा पाडिया सिला सहसा । भग्गा य तीए सेज्जा, सव्वत्तो निवडमाणीए ॥ ४३ ॥ तो परमहरिसपसरिय- वियसियहिययाए तीए संलतं । हा! सुट्टु हओ दुट्ठो, मह भाउविणासकारि ति ॥ ४४॥ तो धाविऊण धरिया, केसकलायम्मि अगलदत्तेण । हा! हा! दासीधीए !, को मं हणइ ति भणिरेण पाएसु निवडिऊण य, संलत्तं तीए रक्ख रक्ख त्ति । चत्ता तत्तो नीया य, राइणो पायमूलम्मि सयलो से वृत्तंतो, सिट्ठो तुट्ठेण तो महीयइणा । दिन्ना महई भुत्ती, लोगेण य पूइओ बाढं सव्वत्थ जायकित्ती, गओ य कालक्कमेण नियनगरिं । दिन्ना पिउणा भुत्ती, रन्ना सक्कारिऊणं से निद्दाचागाऽचागे, एवं संपेहिऊण गुणदोसे । इहपरभवसुहकामी, को बहुमन्नेज्ज निद्द ि किंच
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॥५०॥
नरवइसेवापमुहे ववसाए बहुविहे वि इहभविए । सज्झायज्झाणाऽऽई, परभविए वि हु हणड़ निद्दा रिउणो लहंति छिड्डुं डसंति सप्पा पसुत्तमऽह कहवि । अग्गीए होइ गम्मो, सुविरो त्ति हसंति मित्ताऽऽई ॥५१॥ | दोसकरोवरिसंठिय-जियमुत्ताऽऽई मुहे हवा पडड़ । अह खुद्ददेवया वा, छलइ पसुतं मत्तं ति ॥५२॥ तं दक्खतं सो बुद्धि - पयरिसो तं च किर सुविन्नाणं । पुरिसस्स अन्तरिज्जइ, एक्कपए चेव निद्दाए ॥५३॥ अन्नं च
निद्दातमस्स सरिसो, सव्वाऽऽवारी परं तमो णत्थि । ता निज्जिज्ज सम्मं, निद्दं झाणस्स विग्घकरिं ॥ ५४ ॥ जओ
जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं तु सुत्तया सेया । वच्छाऽहियभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए सुयइ सुयंतस्स सुयं संकियखलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुयं, थिरपरिचियमप्पमत्तस्स सुयइ य अयगरभूओ, सुयं च से नासए अमयभूयं । होही! गोणब्भूओ, नट्ठम्मि सुए अमयभूए ता भो देवाऽणुपिया !, जिणिउं निद्दापमायपरचक्कं । अप्पडिहयप्पबोहो, विहरसु थिरपरिचियसुयऽत्थो एवं चउत्थमुवइट्ठ - मेत्थ निद्दाऽभिहाणपडिदारं । एतो विगहादारं, पंचमगं पि हु पयंचेमि
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॥५९॥
“विकथास्वरूपम्”
॥६२॥
| विविहा विरूविगा या अहवा संजमविबाहगत्तेण । संभवइ जा विरुद्धा, कहा वि विगह त्ति सा भणिया ॥ ६० ॥ विसयं पडुच्च सा पुण, चउप्पायारा. परूविया समए । इत्थिकहा भत्तकहा, देसकहा तह य रायकहा ॥ ६१॥ इत्थीणं इत्थीसु व, कह त्ति इत्थीकहा मुणेयव्या । तद्दारेणं संजम - विरोहिगा जा उ सा विकहा | जाड़कुलरूयनेवत्थ- गोयरा थीकहा भये चउहा । तत्थवि खत्तिणिबंभणि- वेसिणिसुद्दीण मज्झाओ अन्नयरजाइयाए, पसंसणा निंदणा व कीरड़ जा । सा जाइकहा भन्नड़, तीए सरूवं इमं तु जहा जाइकहा
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॥६४॥
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