Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 242
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ७७१७-७७५१ अष्टमम् पञ्चनमस्कारद्वारम् - श्रावकपुत्रदृष्टान्तः ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ एक्को वि नमोक्कारो, परमेट्ठीगं पगिट्ठभावाओ । सयलं किलेसजालं, जलं व पवणो पणोल्लेइ संविग्गेणं मणसा, अखलियफुडमणहरेण य सरेण । पउमाऽऽसणिओ करबद्ध - जोगमुद्दो य काणं सम्मं संपन्नं चिय, समुच्चरेज्जा सयं णमोक्कारं । उस्सग्गेणेस विही, अह बलगलणे तहा न पहू तन्नामाऽणुग असिया - उस त्ति, पंचक्खरे तहवि सम्मं । निहुयं पि परावत्तेज्ज, कह वि अह तत्थऽवि असतो ॥२०॥ ता झाएज्जा ओमिति संगहिया जं इमेण अरहंता । असरीरा आयरिया, उवझाया, उवझाया मुणिवरा सव्वे ॥ २१ ॥ एयन्नामाऽऽइनिसन्न - यन्नसंधिप्पयोगओ जम्हा । सद्दन्नुएहिं एसो, ओंकारो किर विणिद्दिट्ठो एयज्झाणा परमे-ट्ठिणो फुडं झाइया भवे पंच | अहवा जो एवं पि हु, झाएउं होज्ज असमत्थो सो पासट्ठियकल्लाण - मित्तयग्गेज पंचनवकारं । निसुणेज्ज पढिज्जंतं, हिययम्मि इमं च भायेज्जा एसो स सारगंठी, एस स को वि हु दुलंभलंभो ति । एसो स इट्ठसंगो, एयं तं परमतत्तं ति अहह! तडत्थो जाओ, नूणं भवजलहिणो अहं अज्ज । अन्नह कहिं अहं कह व एस एवं समाओगो ॥ २६॥ धन्नो हं जेण मए, अणोरपारम्मि भयसमुद्दम्मि । पंचण्ह नमोक्कारो, अचिंतचिंतामणी पत्तो ॥२७॥ किं नाम अज्ज अमय-तणेण सव्वंऽगियं परिणओ हं । किं वा सयलसुहमओ, कओ अकंडे वि केणाऽवि ॥ २८ ॥ इय परमसमरसापत्ति - पुव्यमाऽऽयन्निओ नमोक्कारो । निहणड़ किलिट्ठकम्मं विसं व सियधारणाजोगो जेणेस नमोक्कारी, सरिओ भावेण अंतकालम्मि । तेणाऽऽहूयं सोक्खं, दुक्खस्स जलंजली दिन्नो | एसो जणओ जणणी य, एस एसो अकारणो बंधू । एसो मित्तं एसो, परमुवयारी नमोक्कारो सेयाण परमसेयं, मंगल्लाणं च परममंगल्लं । पुन्नाण परमपुन्नं, फलं फलाणं नमोक्कारो तह एस नमोक्कारो, इहलोगगिहाओ जीवपहियाण । परलोयपहपयट्टाण, परम पच्छयणसारिच्छो जह जह तस्सवणरसो, परिणमड़ मणम्मि तह तह कमेण । खयमेड़ कम्मगंठी, नीरनिहित्ताऽऽमकुंभो व्व ॥ ३४ ॥ तयनियमसंजमरहो, पंचनमोक्कारसारहिपउत्तो । नाणतुरंगमजुत्तो, नेइ नरं नेव्युइनगरं ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३५॥ રૂા ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ | जलणो वि होज्ज सीओ, पडिपहहुत्तं यहेज्ज सुरसरिया । न य नाम न नेज्ज इमो, परमपयपुरं नमोक्कारो ॥३६॥ | आराहणापुरस्सर - मऽणन्नहियओ विसुद्धलेसागो । संसारुच्छेयकरं ता मा सिढिलसु नमोक्कारं एसो हि नमोक्कारो कीरइ नियमेण मरणकालम्मि । जं जिणवरेहिं दिट्ठो, संसारुच्छेयणसमत्थो अक्खेयेणं कम्म क्खओ तहा मंगलाऽऽगमो नियमा । तक्काले च्चिय सम्मं, पंचनमोक्कारकरणफलं कालन्तरभाविफलं तु, दुविहमिहभवियम ऽण्णभवियं च । इहभवियमऽत्थकामा, उभयभवसुहायहा सम्मं इहभवसुहावहा तत्थ ताव अकिलेसभवणओ ताण । आरोग्गपुव्वगं तह, निव्विग्धं ताण माणणओ ॥४१॥ परभवसुहावहा पुण, सुत्तविहीए सुठाणविणियोगा । पंचनमोक्कारफलं, अह भन्नइ अन्नभवियं पि ॥४२॥ जड़ वि न तज्जम्मे च्चिय, सिद्धिगमो कह वि जायए तह वि पत्तनमोक्कारा एक्क- सिं पि किर तमऽविराहिता ॥ ४३ ॥ उत्तमदेवेसु तहा, कुलेसु विउलेसु अतुलसुभकलिया । हिंडित्ता पज्जंते, सिज्झति चेव विहुयरया इह पुण परमत्थेणं, नाणावरणाऽऽड़याण कम्माणं । पड़खणमऽणंतपोग्गल - विगमम्मि जायमाणम्मि पाउणड़ नमोक्कारस्स, पढमं वण्णं नकारमऽह सेसे । वन्ने पत्तेयं चिय, तदऽणंतविसुद्विसम्भावो एवं एक्केक्कं पि हु, अक्खरमऽच्चन्तकम्मखयलब्धं । जस्स स कहं न वंछिय - फलदाई होइ नवकारो ॥४७॥ किंच ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ | इहभवियमऽत्थकामा, जं भणियं तत्थ अत्थविसए ता । सावगपुत्तो नायं, जायऽत्थो मडगवइयरओ ॥४८॥ तहाहि “श्रावकपुत्रदृष्टान्तः” ॥४९॥ एगम्मि महानगरे, सावगपुत्तो उ जोव्वणुम्मत्तो । वेसाजूयपसंगी, अच्चंतपमायपडिबद्धो सुचिरं बहुप्पयारेहिं, भन्नमाणो वि धम्मपडिवत्तिं । न कुणड़ निरंकुसो करि-यरो व्य विस्संथुलं ललइ ॥५०॥ अह सो पिउणा करुणाए, बाहरेऊण मरणसमयम्मि । भणिओ पुत्तय! जड़ वि हु, दढं पमत्तो तहावि तुमं ॥५१॥ 1. पच्छयणं = पथ्यदनं = शम्बलम् । 217

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