Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 204
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६३४५-६३८२ सुबन्धुसचिवचाणक्योः दृष्टान्तः - परपरिवादस्वरूपम् तुभं जणणी चाणक्क-मंतिणा फालिऊण फुडमुयरं । पंचत्तं उवणीया, ता भे एत्तो वि को वेरी ॥४५॥ एवं सोच्चा कुविएण, राइणा पुच्छिया नियगधावी । तीए वि तहा कहियं, मूलाउ न कारणं सिटुं ॥४६॥ पत्थावे चाणक्को, समागओ भूवई वि तं दट्टुं । भालयलरइयभिउडी, झडित्ति विपरंमुहो जाओ ॥४७॥ अहह! कहं गयजीओ ति, परिभवं मह करेड़ एस नियो । परिभाविऊण एवं, चाणक्को नियगिहम्मि गओ ॥४८॥ दाऊण गेहसारं, पुत्तपोत्ताऽऽइसयणवग्गस्स । निउणमईए विभावइ, मह पयसंपत्तिवंछाए ॥४९॥ केण वि पिसुणेण इमो, मन्ने राया पकोविओ एवं । ता तह करेमि जह सो, दुक्खाऽभिहओ चिरं जियइ॥५०॥ ता पवरगंधबंधुर-जुत्तिपओगेण साहिया वासा । खित्ता समुग्गयम्मि, लिहियं भुज्जम्मि तह एयं ॥५१॥ जो एए वरवासे, जिंपिंता इंदियाण अणुकूले । विसए निसेवइस्सइ, सो वच्चिस्सइ जमघरम्मि ॥५२॥ वरवत्थाऽऽभरणविलेव-णाई तूलीउ दिव्वमल्लाइं । ण्हाणं सिंगारे वि हु, जो काही सो वि लहु मरिही ॥५३॥ इय वाससरुवपरूव-णापरं भुज्जयं पि वासंतो । पक्खिविऊण समुग्गो, ठविओ मंजूसमज्झम्मि |सा वि हु पवरोवरए, जडिउं पउराहिं किलियाहिं दढं । पम्मुक्को तालिता, तस्स क्वाडाई निबिडाई ॥५५॥ खामित्ता सयणजणं, जिणिंदधम्मे नियोजिऊणं च । रन्नेडणाउलठाणे, इंगिणीमरणं पवन्नो सो ॥५६॥ जाणियपरमत्थाए, अह धावीए नराऽहियो युत्तो । पिउणो वि हु अब्भहिओ, चाणक्को कीस परिभूओ ॥५४॥ | रन्ना भणियं जणणी-विणासगो एस तीए तो भणियं । जड़ तं न विणासंतो, एसो ता तुमऽवि नो हुँतो ॥५८॥ जम्हा तुह पिउविसभावियजन्न-कवलं गहाय भुंजती । पड़ गब्भठिए देवी, विसविहुरा मरणमडणुपत्ता ५९॥ तम्मरणं च पलोइय, चाणक्केणं महाऽणुभावेणं उयरं वियारिऊणं, छुरियाए तुमं विणिच्छूढो ॥६०॥ तह तुह नीहरियस्स वि, विसबिंदू जो सिरम्मि संलग्गो । मसिवन्नो तेण तुमं, निव! बुच्चसि बिंदुसारो ति ॥६१॥ एवं सोच्या राया, परम संतावमुवगओ संतो । सव्वविभूईए गतो, सहसा चाणक्पासम्मि ॥६२॥ दिट्ठो य सो महप्पा, करीसमज्झट्ठिओ विगयसंगो । सव्वाऽऽयरेण रन्ना, पणमित्ता खामिओ बहुसो ॥३॥ | भणिओ य एहि नगरं, रज्जं चिंतेहि तेण तो युत्तं । पडिवन्नाउणसणो हं, विमुक्कसंगो य वट्टामि ॥४॥ न य नाऊण वि सिटुं, सुबंधुदुव्विलसियं तया रन्नो । चाणक्केणं पेसुन्न-कडुविवागं मुणंतेण ॥६५॥ अह भालयलाउडरोविय-रेण राया सुबंधुणा भणिओ । अणुजाणह देव! मम, जह भत्तिमिमस्स परेमि ॥६६॥ अणुजाणिएण य तओ, सुबंधुणा खुद्दबुद्धिणा य धुवं । दहिऊण तदंडगारो, करीसमझम्मि पक्खित्तो ॥६॥ सट्ठाणगए य नराड-हिवाऽऽइलोगम्मि सुद्धलेसाए । वस॒तो चाणक्को, तेण कीसऽग्गिणा दड्ढो - ॥८॥ उववन्नो सुरलोए, भासुरबोंदी महिड्ढिओ देवो । सो पुण सुबंधुसचिवो, तम्मरणाऽऽणंदिओ संतो ॥६९॥ अवसरपत्थियपत्थिव-विदिन्नचाणक्कमंदिरम्मि गओ । पेच्छड़ गंधोवरयं, घट्टियनिविडुब्भडकवाडं ॥७०॥ इह सव्वमऽत्थसारं, लहिहं ति कवाडविहडणं काउं । निच्छूढा मंजूसा, ता जायडग्घाइया वासा ॥७१॥ दिटुं च भुज्जलिहियं, तस्सऽत्थो वि य वियाणिओ सम्मं । तो पच्चयत्थमेक्को, वासे अग्धाविओ पुरिसो ॥७२॥ | जाविओ य विसए, गओ य सो तक्खणेण पंचत्तं । एवं विसिट्ठवत्थूसु, सेसेसु वि पच्चओ विहिओ ॥७३॥ हा! तेण मएण वि मारि-ओ म्हि इइ परमदुखसंतत्तो । जीयडट्ठी स वरागो, सुमुणी इव ठाउमाउडरद्धो ॥७४॥ इयदोसं पेसुन्नं, तप्परिहारं च इयगुणं नाउं । तुममाऽऽराहणचित्तो, चित्ते वि हु मा तयं धरसु ॥५॥ | पन्नरसमिमं भणियं, पावट्ठाणं इयाणि वन्नेमि । परपरिवायऽभिहाणं, संवेणेव सोलसमं ॥७६॥ ___“परपरिवादस्वरूपम्" - लोयाण समक्खं चिय, परदोसविकत्थणं जमिह सो उ । परपरिवाओ मच्छर-अत्तुक्करिसेहिं संभवइ ॥७॥ जम्हा मच्छरगहिओ, न गणइ पणयं न चेव पडिवन्नं । न य कयमुवयारं पि य, न परिचयं नेय दक्खिन्नं ॥७८॥ न गणेइ य सुयणतं, न यऽप्पपरभूमिगाविसेसं पि । न कुलक्कम न धम्म-ट्ठियं च नवरं स निच्चं पि ॥७९॥ चलइ ववहरइ कह सो, किं चिंतइ भासड़ कुणइ किं वा । इय परछिद्दनिरिक्खण-वक्खित्तमणो मुणइ न सुहं॥८०॥ एवं कमेण एक्को वि, मच्छरो जायए परो हेऊ । परपरिवायविहीए, किं पुण अतुक्करिससहिओ ॥१॥ सुरगिरिगरुयं पि परं, परमाउणुं मुणइ अत्तउक्करिसी । अप्पाणं पुण तिणतुल्ल-मवि गुरुं अमरगिरिणो वि ॥८॥ 179

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