Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 201
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ६२३६-६२७२ अभ्याख्यानपापस्थानस्वरूपम् - अङ्गर्षेदृष्टान्तः - अरतिरतिस्वरूपम् ॥३९॥ ॥४०॥ पडिलाभिंति तेहिं, सनिमित्तोवक्खडेहिं भत्तेहिं । जक्खेण य तुट्ठेणं, खित्ता गयणाउ वसुहारा गंधोदयं च वुद्धं भमराऽऽउलपुप्फनियरसंवलियं । कलहच्चागेणेयं, सो जाओ देवपुज्जो ति | कलहे तच्चागम्मि य, इय दोसगुणे विभाविउं सम्मं । तह कहवि खमग! वट्टसु, जह सिज्झइ पत्थुयत्थो ते ॥ ४१ ॥ पावट्ठाणगमेवं, बारसमं पि हु पयन्नियं किंपि । अब्भक्खाणऽभिहाणं, एत्तो कित्तेमि तेरसमं ॥४२॥ “अभ्याख्यानस्वरूपम्” पाएणं पच्चक्खं, उद्दिस्स परं असंतदोसाणं । आरोवणं जमेत्थं, अब्भक्खाणं तयं बेंति एवं अब्भक्खाणं, सपरोभयदुट्ठचित्तसंजणगं । तप्परिणओ य पुरिसो, किं किं पावं न अज्जेइ तज्जपणे य जे कोह- कलहप्पमुहेसु यन्निया केवि । इहपरभवुब्भवा ते, दोसा सव्ये वि जायंति जइवि किर परमथोयं, पावमऽभक्खाणदाणयं तहवि । देइ दसगुणविवागं, सव्यन्नहिं जओ भणियं “वहबंधण अब्भक्खाण - दाणपरधगविलोवणाऽऽईणं । सव्यजहन्नो उदओ, दसगुणिओ एक्कसि कयाणं" “तव्ययरे उ पओसे, सयगुणितो सयसहस्सकोडिगुणो । कोडाकोडिगुणो वा, होज्ज विवांगो बहुतरो वा સંજો ॥४४॥ ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ तहा सव्वेसिं सोक्खाणं, निरासकरणम्मि सुपडिवक्खाणं । गणणाए असंखाणं, कुओ वि नो भाविरक्खाणं अच्चतं तिक्खाणं, हिययदरीदारणेक्कदक्खाणं । एवं अब्भक्खाणं, निबंधणं सव्यदुक्खाणं एयविरताणं पुण, इहपरभवभाविभल्लिमा सव्वा । अप्पवस च्चिय निच्वं जहिच्छिया जायड़ जयम्मि रुद्दो व्य अजसमऽसमं, पावड़ तेरसमपावठाणाओ । अंगरिसी विव तव्विरय-माणसो लभइ कल्ला तहाहि“अङ्गर्षेदृष्टान्तः” ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ चंपाए नगरीए, अज्झायगकोसियज्जपासम्मि । अंगरिसी रुद्दो वि य, धम्मेण पढंति दो सीसा आणताऽणज्झाए, ते पुण तेणं अरे उवणमेह । एक्केक कट्ठहारग-मऽडवीहिंतो लहुं अज्ज पयईए च्चिय सरलो, तहत्ति पडिवज्जिऊण अंगरिसी । अडवीए कट्ठाणं, आणयणट्ठा गओ तुरियं रुद्दो य दुट्ठसीलो, गेहाउ नीहरितु डिंभेहिं । सह कीलिउमाऽऽरद्धो, जाए य विगालसमयम्मि चलिओ अडवीहुतं, दूरे दिट्ठो य गहियकट्ठभरो । इंतो सो अंगरिसी, अविहियकज्जो ति तो भीओ तद्देसगामिणि कट्ठ- हारिणि मारिऊण जोइजसं । थेरिं तक्कट्ठभरं घेत्तूणं तं च गत्ताए ॥५८॥ पक्खिविऊणं सिग्घं, समागओ भणइ कवडसीलो सो । उज्झाय ! सज्झसकरं, चरियं तुह धम्मसीसस्स ॥५९॥ अज्ज समत्थं पि दिणं, रमिउं इण्डिं च मारिउं थेरिं । तक्कट्ठभरं घेतुं, जवेण सो एइ अंगरिसी ॥६०॥ जड़ पत्तियह न तुब्भे, आगच्छह ता जहा निदंसेमि । जमऽवत्थं उवणीया, जहिं च खिता य सा थेरी ॥ ६१ ॥ एवं भणमाणम्मि, कट्टभरं घेत्तुमाऽऽगओ झति । अंगरिसी कुद्धेणं, भणितो अज्झायगेण तओ ॥६२॥ आ पाव! अकिच्चमिमं काउं अज्ज वि तुमं गिहे एसि । अवसर दिट्ठिपहाओ, पज्जत्तं तुज्झ पाढेण ॥६३॥ वज्जवडणं व दुस्सह-मडब्भक्खाणं इमं च सुणिऊण । परमविसायमुवगतो, संचितिउमेवमाऽऽढतो आ पावजीव ! पुव्वब्भवम्मि, एवंविहं कयं कम्मं । किंपि तए तेणेमं, दुव्विसहं वसणमाऽऽवडियं इय संवेगोवगतो, सरिउं चिरभवसुचिण्णसामन्नं । सुहझाणहणियकम्मो, सो केवललच्छिमऽणुपत्तो | महिओ देवनरेहि य, रुद्दो पुण तेहिं चेव सव्वत्थ । पावो त्ति खिंसिओ बहु, तह अब्भक्खाणदाइ ति ॥६७॥ इय सोऊणं तुममऽवि, अब्भक्खाणाउ विरम भो खमग! जेणीहियगुणसाहण - हेउसमाहिं लहुं लहसि तेरसमपावठाणग-मुवइट्ठ लेसओ इमं ताव । अरइरइनामधेयं एत्तो दंसेमि चोद्दसमं ॥६४॥ ॥६५॥ દ્દો ॥६८॥ ॥६९॥ “अरइरइस्वरूपम्” अरइरईहिं दोहिं वि, एक्कं चिय बिंति पावठाणं जं । विसओवयारवसओ, अरई वि रई रई वरई जह निप्पम्हदिसाए, पावारे पाउयम्मि जा अरई । स च्चिय पम्हदिसाए, तप्पाउरणे रई होइ तह पम्हिल्लदिसाए, पावारे पाउयम्मि जा य रई । स च्चिय इयरदिसाए, तप्पाउरणे भवे अरई 1. काष्ठभारकम् । २. वरई वि + अरई (इस प्रकार से संधि निकाले) ॥ ४९ ॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ 176

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