Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
View full book text
________________
संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५८११-५८४६
मैथुनस्वरूपम् - गिरिनयरनिवासिनीदृष्टान्तः दिवसं निसं पिवासं, छुहं अरण्णं परं सुहं दुक्खं । सीयं उण्हं गम्म, अगम्ममऽवि नो मुणइ किंतु ॥११॥
ओ दीहमस्ससइ खलइ । वेल्लइ परिदेवइ रुयइ, सुबइ जंभायइ य बहसो ॥१२॥ एवं अणंतचिंता-संताणुत्तम्ममाणकामीण । क्यदुग्गइप्पयारं, वियारमऽवलोइय बुहेण
॥१३॥ सव्वं पि हु मेहुण्णं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिच्छं च । उड्ढमडहतिरियखेते, राओ वा दिवसओ वा वि ॥१४॥ रागाओ दोसाओ वा, दोसाण समुस्सयं महापावं । सव्याख्यायनिमित्तं ति, चिंतणिज्जं न मणसा वि ॥१५॥ चिंतिज्जते य इमम्मि, पायसो पवरबुद्धिणो वि दढं । अविभावियपरनियजुवइ-सेवणादोसगुणपक्खो ॥१६॥ आरन्नकरिवरो इव, दुव्यारो जायए तदऽभिलासो । जीवाण जमडइगरुई, मेहुणसण्णा सहायाओ ॥१७॥ तो पइदिणवड्ढंता-अभिलासपयणप्पदिप्पमाणसिहो । निरुवसमं सव्वंडगं, पयंडमयणाऽनलो जलइ ॥१८॥ तेण य डझंतो असम-साहसं मणसि संपहारिता । जीयं पि पणं काउं, गुरुजणलज्जाऽऽइ अवगणिउं ॥१९॥ सेवेज्ज मेहुणं पि हु, ततो इह परभवे बहू दोसा । होति जओ सो निच्चं, ससंकिओ भमइ सव्वत्थ ॥२०॥ अह तक्कारि त्ति कयाइ, कहवि लोगेण जड़ स नज्जेज्जा । तो दीणमुहो जायड़, खणेण मरमाणलिंगो य ॥२१॥ गिहसामियनगराऽऽरक्खिएहिं, वा गहियनिहयबद्धस्स । दुट्ठखराऽऽरोवणपुव्य-गं च अह से वरायस्स ॥२२॥ उग्घोसणा पुरे तिक-चउक्च च्चरपहेसु परिभमइ । जह हंभो पउरजणा!, अवरज्झइ नेह रायाऽऽई ॥२३॥ केवलमज्वरज्झंति, पावाई सयं कडाई कम्माई । ता भो! इयरूवाई, इमाई अन्नो वि मा कुज्जा ॥२४॥ करचरणछेयवहबंध-रोहणुल्लंबणाडइमरणंडता । के के न होंति दोसा, इहभविया? मेहुणपरस्स ॥२५॥ परभविए पुण दोसे, केत्तियमेते उ कित्तिमो तस्स । जं मेहुणपाउभव-पावाउ अणंतभवभमणं ता भो! भणामि सच्चं, चयाहि सव्वं पि मेहुणं सम्मं । तप्परिचागा कुगई, चत्त च्चिय होइ दुहपगई ॥२७॥ अन्नं चपायडियविगियरूवं, आयासकिलेससाहणिज्जं च । सव्वंऽगियगुरुवायाम-जणियसेयाऽहिउव्वेगं
॥२८॥ सज्झसरुज्झंतगिरं, विलज्जकज्जं जुगुच्छणिज्जं च । एत्तो चेय निमित्ता, पच्छन्नाऽऽसेवणीयं पि ॥२९॥ | हिययुक्खइखयपामोव-विविहवाहीण हेउभूयं च । अप्पत्थभोयणं पिय, बलवीरियहाणिजणगं च | किंपागफलं पिव भुज-माणमऽवसाणविरसमऽइतुच्छं । वामोहकरं नडनच्चि-यं व गंधव्वनयरं व ॥३१॥ सयलजणजणियनिरसण-सुणगाऽऽइनिहीणजंतुसामन्नं । सव्वाऽभिसंकणीयं, धम्मत्थपरतविग्घरं
॥३२॥ आवायमेतसुहलेस-संभवम्मि विवेगवं को णु । निहुयणसोक्खं कंग्रेज्ज, मोक्खसोक्खक्कपरिक्खी ॥३३॥ मेहुणपसंगसंजणिय-पावपब्भारभारिया संता । निवडंति नरा नरए, जले जहा लोहमयपिंडो
ર૪ | अक्खंडबंभचेरं, चरिउं संपुन्नपुन्नपब्भारा । समुचिंति चिंतियऽत्थं, पाति पहाणदेवत्तं
॥३५॥ ततो चया नरत्ते वि. तियसतल्लोवभोगभोगजया । जायंति पन्नदेहा, विसिटकलजाइसंप
રૂદ્દી होति 'जणगावयणा, सुभगा पियभासिणो सुसंठाणा । रूवस्सिणो य सोमा, पमुइयपक्कीलिया निच्वं ॥३७॥ नीरोगा य असोगा, चिराऽऽउसो कित्तिकोमुइमयंका । अकिलेसाऽऽयासपयं, सुहोइया अतुलबलविरिया ॥३८॥ सव्यंगलक्खणधरा, सालंकारा सुकव्वगंथ व्य । सिरिमंता य वियड्ढा, विवेइणो सीलकलिया य ॥३९॥ भरियाऽवत्था थिमिया, दक्खा तेयस्सिणो बहुमया य । परितूलियविण्हुबंभा, बंभव्ययपालगा होति ॥४०॥ इह तुरियपावठाणग-पवित्तिविणिवित्तिदोसगुणविसए । गिरिनयरनिवासिवयंसि-दारगा होइ दिटुंतो ॥४१॥ तहाहि
___“गिरिनयरनिवासिनीदृष्टान्तः" रेवययगिरिविराइय-विसिट्ठसोरट्ठदेसतिलयम्मि । गिरिनयरे तिन्नि वयंसि-याओ इब्माण धूयाओ ॥४२॥ परिणीयाओ तत्थेव, पवरसुंदेरमणहरंगीओ । ताओ य पसूयाओ, कालेणे-केक्कगं तणयं
॥४३॥ अह अन्नया कयाई, पुरपरिसरकाणणम्मि मिलियाओ । किलंतीओ ताओ, तिन्नि वि चोरेहिं घेत्तूणं ॥४४॥ पारसकूले वेसंडगणाण, दिन्नाओ भूरिदव्येण । सिक्खवियाओ ताहिं, येसाचरियं निरऽवसेसं
॥४५॥ दूरदिसाऽऽगयउत्तम-वणिपुत्ताऽऽईण तयऽणु ठवियाओ । उवभोगत्तेण जणा, लद्धपसिद्धी य जायाओ ॥४६॥ 1. जनग्राह्यवचनाः।
164
Page Navigation
1 ... 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308