Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 191
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५८८३-५६१६ लोहनन्दजिनदासदृष्टान्तः - क्रोधस्वरूपम् मणिकणगरयणपुन्नं, लोयं पि हु पाउणेज्ज जड़ कह वि । तह वि य अछिन्नवंछो, ही! अकयत्थो च्विय यराओ॥८३॥ पुन्नेहिं सुन्नो वि हु, अत्थे जो विमूढऽप्पा । एमेव सो विणस्सइ, असमत्तमणोरहो चेय ૮૪ની न सक्कणिज्जो जहेत्थ कोत्थलओ। डय अत्थेण न सक्को, कहिं पि अप्पा वि परेउं ॥८५॥ इच्छायोच्छेयकए, संतोसो चेव ता वरं विहिओ । संतोसिणो हि सोक्खं, दुक्खमसंतोसिणो धणियं ॥८६॥ |पंचमपावट्ठाणग-पसतविणियत्तयाण दोसगुणा । जह लोहनंदजिणदास-सावगाणं तहा गेया तहाहि ____“ लोहनन्दजिनदासदृष्टांतः” पाडलिपुत्ते नगरे, बहुसमरविढतविजयजसपसरो । आसि जयसेणनामो, नरनाहो भूरिगुणकलिओ ૮૮ | तत्थ य पुरम्मि अथरिय-कुबेरधणवित्थरा परिवसंति । नंदपमोक्खा वणिणो, जिणदासाऽऽई सुसड्ढा य ॥८९॥ अह एगम्मि अवसरे, समुद्ददत्ताऽभिहाणवणिएण । चिरकालियं सरोवर-माऽऽरद्धं खाणिउं एक्कं ॥९०॥ तत्थ खणिज्जंतम्मि, उड्डेहिं पुव्यपुरिसपक्खित्ता । लद्धा सुवन्नकुसया, चिरकालियकिट्टचयमलिणा ॥९१॥ तो लोहमय ति वियाणिऊण, वणियाण तेहिं उवणीया । जिणदासेणं गहिया य, दोन्नि नाऊण लोहमया ॥१२॥ अह तेण नियंतेणं, सम्म नाउं सुवन्नमइय ति । परिमाणाऽइक्कमभया, दिना तित्थयरभवणम्मि ॥१३॥ अवरे पुणो न गहिया, नवरं नंदेण जाणमाणेण । आढता ते घेत्तुं, समहियअत्थव्वएणाऽवि . ॥१४॥ उड्डा य इमं भणिया, लोहकुसे मा पस्स देज्जाह । अहमिच्छियं दलिस्सामि, तुम्ह तेहिं च पडिवण्णं ॥१५॥ अवरम्मि दिणे मित्तेण, सो बला भोयणडट्ठया नीओ । तेण य पुत्तो भणिओ, जह तह गिण्हेज्जसु कुस ति ॥१६॥ पडिसुयमिमं सुएणं, भोत्तुं मित्तग्गिहे गओ ताहे । अच्वंतवाउलमणो, भोत्तुं च 'गिहंमुहो चलिओ ॥१७॥ अमुणियपरमत्थेण प, समाहियमोल्ल ति नो कुसा गहिया । तेण सुएणं उड्डा य, जायकोवा परत्थ गया ॥९८॥ जत्तो तत्तो य खिवंतयाण, अह कहयि यवगए किट्टे । एगस्स उ कुसयस्सा, पयर्ड चामीयरं जायं ॥१९॥ रायपुरिसेहिं ततो, उड्डा गहिउं समष्णिया रन्नो । पुट्ठा य कत्थ अन्ने, विक्कीया कहह कुसग ति। तेहिं कहियं नराहिय!, दिन्ना जिणदाससेट्ठिणो दोन्नि । अवसेसे नीसेसा, उवणीया नंदयणियस्स ॥१॥ एवं भणिए रन्ना, वाहरिउं पुच्छिओ हु जिणदासो । सिट्ठो य तेण सव्यो, जहट्ठिओ नियगयुत्तंतो ताहे रन्ना सम्माणिऊण, सो पेसिओ नियगिहम्मि । नंदो य नियगहढें, समागओ पुच्छए पुत्तं ॥३॥ किं रे! कुसया गहिया, न व ति तेणं पयंपियं ताय! । बहुमुल्ल ति न गहिया, तो ताडिंतो उरं नंदो ॥४॥ हा! हा! मुट्ठो ति पयंपिरो य, जंघाउ भंजड़ कुसेण । एयाणमेस दोसो, जेण गओ हं परगिहे ति ॥५॥ तो यज्झो आणतो, सो रन्ना अवहडं च सव्वस्सं । एमाऽऽई बहु दोसा, इच्छाविणियित्तिरहियाणं ॥६॥ इय खमग! मणागं पि हु, परिग्गहे मा मणो धरिज्जासि । खणदिट्ठनट्ठरुये, का पंछा तत्थ धीराण ॥७॥ एवं परिग्गहविसयं, पंचमग पायठाणगं युत्तं । कोवसरूवाऽऽयेयण-परमेत्तो भन्नइ छटुं ટા "क्रोधस्वरूपम्" - कोहो विगंधिदव्यु-भयो व्य कोहो न कस्स उव्येयं । उवजणयइ एत्तो च्चिय, चत्तो दूरेण विबुहेहिं ॥९॥ किञ्चगुरुकोयजलणजाला-कलावसविसेसकवलियविवेगो । न वियाणइ अप्पाणं, परं च परमत्थओ पुरिसो ॥१०॥ उप्पज्जमाणओ च्विय, कोहो पुरिसं डहेइ ता पढमं । जत्थुप्पण्णो तं चेय, इंधणं धूमकेउव्य ॥११॥ नियकत्तारं कोवो, डहइ अवस्सं परे अणेगंतो । नियपयडहणे सिहिणो वि, अहय नियमो न अन्नत्थ ॥१२॥ सो किं व कुणउ अन्नरस, पेसिओ खीणसत्तिसंजोगो । जो निययमाऽऽसयं नि-दहेइ कोयो महापायो ॥१३॥ जस्स किर कोवकलिणा, कलुसीकयमाणसस्स जंति दिणा । इह परलोगे वि नरस्स, तस्स कह सोक्खसंपत्ती॥१४॥ अवयारी किर वेरी वि, होइ एक्कम्मि चेय जम्मम्मि । कोहो पुण होइ दढं, दोसु वि जम्मेसु अवयारी ॥१५॥ |ज कज्जमुवसमपरा, साहइ न हु तं क्या वि कोवपरो । जं कज्जकरणदक्खा, बुद्धी कुद्धस्स सा कतो ॥१६॥ अन्नं च1. गिहंमुहो = गृहोन्मुखः = गृहसंगुखः । 166

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